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सोशल मीडिया पर रील बनाने वाले को अभिनेता नहीं कह सकते: मुकेश तिवारी

साउथ की फिल्म क्रिएटिविटी पर बोले, बॉलीवुड को महानगरों के बजाए गांव-कस्बों को ध्यान में रख कहानियां चुनना होंगी

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सागर। सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे इंस्टग्राम, यू-ट्यूब व फेसबुक आदि पर कुछ सेकंड या मिनट की वीडियो करने वालों को अभिनेता नहीं कहा जा सकता। इन लोगों की फैन फॉलोइंग लाखों में भले हो। लेकिन बात जब अभिनय की आती है तो इसके कई आयाम हैं। जो सोशल मीडिया पर काम कर रहे लोगों में दिखाई नहीं देते। मेरा मानना है कि अगर इन लोगों को फिल्मों में लिया जाता है तो यह सिनेमाई दर्शक को नहीं ला पाएंगे। यह बात मशहूर फिल्म अभिनेता मुकेश तिवारी ने उनके गोपालगंज स्थित निज निवास पर कही। वह डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विवि में आयोजित यूथ फेस्टिवल में शिरकत करने आए हैं।
रील से आप आलू-बैंगन की सब्जी बनाना भर सीख सकते हैं
सोशल मीडिया पर आगे बात करते हुए सिने कलाकार तिवारी ने कहा कि, रील व अन्य वीडियो से कलाकार कुछ कमा रहे हैं। वहां तक तो ठीक है। लेकिन इससे बाकी जन मानस पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि कई-कई घंटे सोशल मीडिया पर देने के कारण हमारे दिमाग में विक्षोभ जैसी स्थिति बन जाती है। यह एक ऐसा प्लेटफार्म है। जहां से आउटपुट कुछ नहीं है। आप बहुत से बहुत इससे आलू-बैंगन की सब्जी दूसरों से अलग कैसे बनाएं, जैसा ही सीख सकते हैं। लेकिन अभिनय के मामले में कुछ खास नहीं कर सकते है। इस तरह के प्लेटफार्म, खबर-सूचनाएं, पॉलिटिकल एजेंडा, मार्केटिंग या स्वयं को प्रमोट करने के लिए बहुत अच्छे हैं।
मलयाली एशिया का सर्वश्रेष्ठ सिनेमा, बॉलीवुड को चिंतन की जरूरत
मलयानी समेत साउथ के सिनेमा और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बारे में अभिनेता मुकेश तिवारी ने कहा कि मैं विशुद्ध अभिनेता हूं। इसलिए दोनों की तुलना नहीं कर सकता। लेकिन साउथ की फिल्में पूरे देश में सफल हो रही हैं तो इस पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को चिंतन करना चाहिए। जहां तक मेरी बात है तो मेरा मानना है कि साउथ में फिल्में इसलिए भी सफल होती हैं क्योंकि सिंगल स्क्रीन सिनेमाहॉल हैं इसलिए टिकट सस्ते हैं। जबकि हिंदी बेल्ट में अधिकांशत: मल्टीप्लेक्स हैं। जहां फिल्मों की टिकट चंद सौ रुपए से कम की नहीं मिलती। बॉलीवुड मितव्ययता के साथ सिनेमा बनाए तो टिकट सस्ता करने में परेशानी नहीं आएगी। आगे वह बोले कि, मलयाली सिनेमा को एशिया का सर्वश्रेष्ठ सिनेमा माना जाता है। क्योंकि वहां कहानियों पर काम हो रहा है। बॉलीवुड में ऐसा अपेक्षाकृत कम हो रहा है। हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि कहीं हम कपोल-कल्पित फिल्में तो नहीं बना रहे। वर्तमान में यहां कॉर्पोरेट हाउसेस के हाथ में फिल्म निर्माण के सारे पक्ष चले गए हैं। जिसके चलते क्रिएटिविटी का नुकसान हुआ है। फिल्मों से यादगार म्युजिक या मेलोडी गायब होने समेत अन्य कमियों के पीछे यही वजह मानी जा सकती है। हमें महानगरों के अलावा भारत के गांव-कस्बों को ध्यान में रखकर फिल्में लिखनी होंगी, बनाना होगा।  
डायरेक्टर का एक्टर हो तो परफॉर्मेंस बेहतर होता है
कॉर्पोरेट हाउसेस के फिल्म निर्माण में आने से आगे की बात करते हुए मुकेश तिवारी ने कहा कि, अब पहले जैसा एक्टर-डायरेक्टर के भी तादाम्य नहीं रह गया है। कुछ लोगों का समूह डायरेक्टर तय करता है तो कुछ का एक्टर। जिसके चलते इन दो महत्वपूर्ण कड़ियों के बीच बहुत अच्छा तादाम्य नहीं बैठ पाता। अगर डायरेक्ट का चुना हुआ एक्टर होगा तो वह अपनी परिकल्पना के अनुसार उससे काम करा लेगा। उदाहरण के लिए मैं, सफल निर्देशक रोहित शेट्टी के साथ जमीन फिल्म के समय से जुड़ा हूं। दर्जन भर से अधिक फिल्में उनके साथ कर चुका हूं। चूंकि वह मेरे एक्टिंग स्किल को समझते हैं तो वह मुझे खलनायक से कॉमेडियन तक ले आते हैं। इसी तरह से प्रकाश झा हैं जो मेरे खलनायकी वाले दौर में बच्चा यादव जैसा संवेदनशील और प्रभावी रोल लिख मुझसे एक्टिंग करा लेते हैं।

27/11/2024

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