शख्सियतसाहित्य और संस्कृति
बलिदान और उदारता की अनोखी मिसाल था लाखा बंजारे का परिवार
(लाखा बंजारा भाग-2) डॉ रजनीश जैन-
लाखा बंजारे की कई विशाल विरासतें आज सरकार के कब्जे में हैं। हरियाणा के फतेहाबाद जिले के बिगाड में 300 एकड़ जमीन लक्खीशाह की विरासत है जो गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नईदिल्ली के पास है। यह जमीन नवें सिख गुरु तेगबहादुर की पवित्र मृत देह को मुगलसेना के कब्जे से लेकर भागे लक्खीशाह बंजारा ने अपनी ओर से सेवा में लगाई होगी। अपने टांडे (तंबुओं का शिविर)) में गुरु की देह ले जाकर निजी घर के साथ ही जला कर गुपचुप अंत्येष्टि लाखा बंजारा ने ही की थी। यह सिख इतिहास की उन दुखद गाथाओं में से एक दर्दनाक घटना थी जब 24 सितम्बर,1675 के दिन औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में गुरु तेग बहादुर साहब का शीश तलवार से कटवाया था। जहाँ गुरु का शीश कटा था वहां आज गुरुद्वारा शीशगंज है और रायसिना में संसद भवन के पास जहाँ लाखा बंजारे ने गुरु साहब की अंत्येष्टि की थी वहां गुरुद्वारा रकाबगंज बनवाया गया था।मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने इस जगह गुरुद्वारा बनाने की अपने काफिलों की आड़ में निरंतर लक्खीशाह बंजारे और उनके पुत्रों ने सिख साम्राज्य की ताकत बढ़ाने में आर्थिक, सामरिक सामग्री की खुफिया सप्लाई, किलों की निर्माण सामग्री पहुंचाने जैसी मददें लगातार कीं।



लक्खीशाह बंजारा के सभी आठ पुत्र अलग-अलग वक्तों में गुरु गोविंदसिंह जी और बंदाबहादुर साहब के लिए मुगल सेनाओं से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। लक्खीशाह के पिता नायक गोदनशाह और उनके दादा नायक ठाकुर और परदादे सभी गुरूनानक जी के भक्त थे। बही में दर्ज जन्म की तारीखों सहित उनकी नौ संतानों के नाम दर्ज हैं। निगाईया (जन्म सन् 1622), हेमा(1614) ,हाड़ी या हडिया(1617), सीतू(1621), पंडारो(1625),बक्शी (1628),बाला(1637),जवाहर (1637) और बेटी सीतो(1641) उनकी संतानों के नाम हैं।

लाखा बंजारा के बेटे हेमा और नगहिया की शहादत 1700 से 1704 के बीच आनंदपुर साहब में गुरु गोविंद सिंह जी के लिए लड़ते हुए हुई। बाद में उनके पोते अग्रज सिंह और फराज सिंह दोनों महान सेनापति बंदाबहादुर के जनरल थे । दोनों ने बंदाबहादुर के साथ 9/6/1716 को दिल्ली में शहादत पायी। सिख इतिहास में दर्ज है कि लगभग पचास की संख्या में लक्खीशाह बंजारा के पुत्र ,पोते, पड़पोते सिख धर्म के लिए लड़ते हुए शहीद हुए थे। अपार धनदौलत भी सिक्खी के लिए इस खानदान ने कुर्बान की। लाखा के परिवार का डेढ़ सौ साल का इतिहास सेवा, त्याग और बलिदान का है, लेकिन इसका एक भी प्रमाण नहीं कि सागर के तालाब के लिए उसके परिवार में से किसी की बलि दी गयी हो। यह किंवदंती क्यों फैली इसकी हम अगले अंक में तथ्यों सहित विवेचना करेंगे।


भारत से जाकर दुनिया के 15 देशों में फैल गये बंजारा समुदाय को आज भी स्वच्छंद और उन्मुक्त माना जाता है। इनके आपराधिक रूझान और विधि सम्मत व्यवसायों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये को देख हैरत होती है कि लक्खीशाह बंजारे के पास इतनी व्यापारिक कुशलता और सामरिक सूझबूझ कैसे विकसित हुई होगी। लगता है यह सारी कलाएं लाखा को उसके एक रिश्तेदार और व्यापारिक साझीदार माखनशाह बंजारा ने सिखाई होगी। अखंड भारत में उस दौर के पूरे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की कमान इन दोनों ही बंजारा मुखियों के पास थी। दोनों के बीच भौगोलिक आधार पर व्यवसाय का बटवारा था। लाखा का व्यावसायिक साम्राज्य मध्य एशिया से लेकर सारे भारत के थल मार्गों पर फैला था तो समुद्री व्यापार पर माखनशाह की हुकूमत थी। बंदरगाहों से आनेजाने वाले सामान के धरती पर विपणन और सप्लाई की जिम्मेदारी लाखा की थी।
लाखा बंजारे के चार टांडे थे। टांडा कहते तो कैंपों की बस्ती को हैं लेकिन लाखा का हरेक टांडा एक चलता फिरता शहर जैसा था। 50 हजार बैलगाड़ियों से एक टांडा बना था। चारों टांडों की सुरक्षा के लिए लाखा के पास एक लाख सशस्त्र फौज थी। इमें से एक हिस्सा रिजर्व या अवकाशों पर भी रहता हो तो हरेक टांडे के साथ बीस हजार सैनिकों की नफरी रहती थी। आगे पीछे चलने वाले गुप्तचरों के समूह अलग थे। मुगल बादशाह के मुख्य ठेकेदार होने के नाते राजकीय अमले की सुरक्षा गारंटी तो थी ही।
दिल्ली के चार गांवों माछला ,रायसिना, बारहखंभा और नरेला के मालिक स्वयं लक्खीशाह थे। हर टांडे का जुड़ाव इनमें से एक गांव से रहा हो यह संभव है। हर टांडे में नमक,अनाज,मंहगे,तेल,मसाले, सूखे मेवे, कपास, बुने सिले वस्त्र, बर्तन, कीमती पत्थर, हाथीदांत और धातुओं के गहने, हथियार, घुड़सवारी के लिए लगाम, रकाबें और जीनें, कामदार गलीचे, हाथियों की झूलें और हौदे, खालों से बनी सामग्री, चूनापत्थर, संगेमरमर, निर्माण सामग्री ,ऊंट, घोड़े, गाय, बैल,भेड़ बकरियाँ, पक्षी आदि सभी सामान काफिलों में रहता था। एक परिवार की सौ बैलगाड़ियां तक होती थीं सो लगभग हजार परिवार अपने बच्चों और गृहस्थी के साथ हर टांडे में चलते थे। इतनी बड़ी सप्लाई चैन प्रतिवर्ष लाखों मीट्रिक टन माल को गंतव्य तक पहुंचाती थी। यह दरअसल देश भर के कारीगरों , किसानों, उत्पादों और व्यवसायियों की भी जीवनरेखा थी।
क्रमशः



