इतिहाससाहित्य और संस्कृति

आखिरी गौंडवाना रानी सती हुई थी डोहेला किले में

खुरई का इतिहास-2 (रजनीश जैन)

खुरई किले में गढ़ा से लाए गये गौंडवाना नरेश नरहरशाह को मृत्युदंड देना इतना आसान नहीं था। उनके सगे संबंधियों के पास अब भी बहुत से किले , गढ़ियां और फौजें थीं। उसे मार देने से मराठों के खिलाफ जनविद्रोह भड़क सकता था। इसलिए नरहरशाह को कैद में जीवित रखा जाना था। उसे अपनी पांचों रानियों और सुविधाओं के साथ रहने के लिए ऐसा किला चयन किया था जहाँ बड़ी गौड़ आबादी की सीधी पहुंच न हो। साथ ही रहवास, जल आपूर्ति और सुरक्षा की दृष्टि सुविधाओं से अच्छा हो। उसके प्रतिद्वंदी गौंडवाना नरेश सुमेरशाह को हटा तहसील के जटाशंकर किले में कैद करके मराठों ने पाया था कि उसने अपना जनसमर्थन वापस हासिल कर लिया। अतः इन सब दृष्टियों से खुरई डोहेला किले को आदर्श माना गया।
खुरई। डोहेला किले में स्थित गौडवाना रानी का सतीस्तंभ
 मराठों ने डोहेला को कुछ ही वर्ष पहले नया रूप दिया था। अपने आराध्य शिवलिंग भी स्थापित किए थे। जब धनसंपदा से भरपूर गौंडवाना नरेश अपनी पांच रानियों को लेकर पहुंचा तो यह किला जैसे उसका महल ही था जिसमें उसके अर्दली नौकर चाकर भी थे। नरहरशाह की उम्र कैद होते समय सिर्फ 32 साल थी। उसकी सबसे छोटी रानी लक्ष्मीकुंवरि तो सिर्फ आठ साल की थी। वह अंत तक संतानहीन ही रहा। संतान के लिए ही उसने पाँच शादियां की थीं। नरहरशाह को नर्मदा किनारे एक लावारिस बालक मिला था। उसे गोद लेकर नर्मदाबख्श नाम रखा गया था। डोहेला में इस परिवार ने अपना मंदिर भी बनवाया। मूंछधारी शिव की पार्वती और गणेश के साथ नंदी पर सवार प्रतिमा को संभवतः नरहरशाह के समय ही डोहेला के महादेव मंदिर में स्थापित किया गया था जो कि गौड़ प्रचलन की प्रतिमा कही जा सकती है। राजा का कारागृह डोहेला मंदिर के ऊपर बाजू में बना एक कमरा था जिसे अब नष्ट कर दिया गया है।  राजा सिर्फ सात साल जीवित रहा 38 साल की उम्र में ही उसकी मौत हो गयी।
नरहरशाह की अंत्येष्टि किले के स्कूल वाले मैदान में वहां की गयी जहां सती चबूतरा बना था। पांच रानियों में से एक रानी सुरकिन मिलापकुंवरी चिता के साथ सती हुई थी। उस समय परेशान हाल होकर दौड़धूप करने वाली एक पासवानीन रानी का उल्लेख मराठी अभिलेखों में है। सबसे छोटी रानी सहित राजा का पूरा परिवार दमोह जिले के सिंगौरगढ़/ सिंग्रामपुर के पास स्थित एक पुश्तैनी गांव में चला गया था। 1831में दमोह जिले में आए कर्नल स्लीमन ने अपने संस्मरणों में नरहरशाह की विधवा रानी से मिलने और उसकज अपनी पत्नी के पास लगातार आते रहने का जिक्र किया है वह लक्ष्मीकुंवरि ही थी। उसे कर्नल स्लीमन की पत्नी खुद को उपहार में मिलने वाली मंहगी शालें और उपहार भेंट में दे दिया करती थीं ताकि विपन्नता में भी उसका राजसी गौरव बचा रह सके।
डोहेला में रानी मिलापकुंवरी के सती चबूतरे को मैदान को उपयोगी बनाने की दृष्टि से अपने मूलस्थान से हटा कर सतीस्तंभ को देवीमंदिर के पास बरगद के पेड़ के चबूतरे पर सीमेंट से गाड़ दिया गया है। उसको सिंदूर से पोता गया है। दुर्भाग्य से इस विस्थापन प्रक्रिया में उस पर लिखा महत्वपूर्ण अभिलेख भी जमीन में दब गया है। बेहतर होता कि इस सती स्तंभ,  डोहेला किले के मंदिर मार्ग स्थित नुकीली कीलों वाले ओरीजनल दरवाजे, मंदिर के बाजू स्थित कारागृह कक्ष में लगे दरवाजे सहित किले से निकली व खुरई तहसील से प्राप्त समस्त पुरासंपदा को लेकर एक संग्रहालय किला परिसर में ही बना दिया जाए। किले के भीतर स्थित राधाकष्ण मंदिर की सेवा खर्च हेतु जगदीशपुरा गांव लगाया गया था जिसकी सनद ताम्रपत्र पर दीवान अचल सिंह ने सन् 1801 में दी थी।
मराठों ने खुरई का तहसील मुख्यालय खिमलासा बनाया था। सन 1818 में अंग्रेजी कब्जे में आए खुरई परगने का मुख्यालय भी खिमलासा ही रखा गया। किले को अंग्रेजों ने 1834 में तहसील कचहरी का मुख्यालय बना दिया। कचहरी भवन 1864 में बना जो कर्नल टी डब्ल्यू हीथ के हाथों लोकार्पित हुआ जिनके हिंदी अंग्रेजी शिलाफलक खंभों पर आज भी हैं। हाल की पुताई में उनको रंगरोगन से ढक दिया गया है। सन् 1867 में खुरई म्यूनिसिपैलिटी कायम की गयी। म्यूनिसिपैलिटी की आय का मुख्य जरिया यहां हर सोमवार लगने वाला बड़ा पशुमेला था। आसपास की रियासतों से जानवर बिकने आते थे। सागर स्थित अंग्रेजी फौज का सारा गोश्त इसी मंडी के कसाई भेजते थे। पठारी रोड पर बहुत बड़ा बूचड़खाना था। समृद्ध कृषि में बैलों की आवश्यकता के कारण उन्नत नस्ल का गौपालन इस पूरे इलाके में होता था। सन् 1920-21 में खुरई मंडी में 39 हजार मवेशियों की बिक्री रजिस्टर हुई जिनकी कीमत 7 लाख 81 हजार रु थी।खुरई कस्बे की जनसंख्या 1911 की जनगणना में 6078 थी।
  डोहेला मंदिर में स्थित शिवपार्वती गणेश की प्रतिमा
खुरई के पहले तहसीलदार पं नारायण राव हुए। खुरई के दो तहसीलदारों के किस्से मशहूर रहे जिनका उल्लेख इतिहासकार डा. हीरालाल ने भी किया है। एक अपने बेटे की बारात में दो गाड़ी जूते भर कर ले गया था ताकि जूते गुमने की हालत में किसी को परेशानी न हो। एक तहसीलदार इमामबख्श था जो सवा हाथ का जूता साथ में रखता था जिसके बल पर ही टैक्स वसूली करता था। वह सारे मुकदमे बिना लिखापढ़ी मुंहजबानी तय करता था और गारंटी से सांप का विष उतारने का दावा करता था।
1857 में भानपुर के राजा ने बागियों के साथ खुरई को घेर लिया तब वहां के तहसीलदार इमामबख्श ने किला और शहर दोनों उनके कब्जे में दे दिए और बागियों से मिल गया। बानपुर राजा जनवरी 1858 तक अपना राज चलाता रहा जब तक कि वह ह्यूरोज की फौज से बरोदिया नौनगर की लड़ाई नहीं हार गया। इस दौरान अंग्रेजों की हिमायत करने वाले कुछ लोगों को नये सिरे से अंग्रेजों ने मालगुजारियां देकर नवाजा जो अब स्वयं को स्वाभिमानी बताते नहीं थकते। खुरई के मराठा परिवारों को अंग्रेजों ने 1857 विद्रोह के बाद से ही उपेक्षित करना शुरू किया। चांदोरकरों के पास मराठों से हुए संधि पत्रों के आधार पर 12 गांव थे। मालासुनैटी, सनाई, ढिकुआ के चांदोरकर परिवार ही मूल मराठा शासक परिवार था जो पेशवा के प्रतिनिधि थे। इनके वंशज आज भी खुरई में हैं।

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