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पत्रकांड से गुरु महाराज, आचार्य पद छोड़ना चाहते थे, अल्प समय में चले गए!

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सागर। जैन समुदाय में उनके पूज्य गुरुवर, मुनि महाराज के बारे किए गए आपत्तिजनक पत्राचार से जुड़े नित नए खुलासे हो रहे हैं। सागर में विहार कर रहे मुनि श्री निर्भीक सागर जी महाराज ने इस मामले में बड़ी बेबाकी दिखाई है। उन्होंने शहर के काकागंज स्थित उदासीन मंदिर में प्रवचन दिए। जिसमें उन्होंने गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के आचार्य का पद त्यागने की मंशा से लेकर उनके समाधिमरण के पूर्व के हालात का जिक्र किया है। वे कहते हैं कि पत्रकांड की कालिख हमारे गुरु महाराज को ले गई। मुनि श्री निर्भीक सागर और भी बहुत कुछ बोले हैं। जिसके संपादित अंश इस प्रकार हैं –

 “इस दुखमय काल में अगर हम देखें तो चारों ओर चकाचौंध की आंधी है। गुरुजी हमेशा कहा करते थे कि अगर कुछ प्रभावना ना कर सको तो आप प्रभावना से बचना। वो यह मूल मंत्र दिया करते थे। वो हमें ढांढस दे रहे थे कि चिंता नहीं करो। तुम दूर जरूर हो। हमारी आज्ञा में हो तो हमारे दिल के पास हो। जो मेरे पास मेरी आज्ञा में नहीं तो हमेशा दूर है। और जब विहार के पूर्व हमने बात की, बड़े दुखी हुए गुरुजी और बताने लगे।पत्र का प्रकरण। वो प्रकरण, जिसने अपने सागर शहर को कलंकित किया जिसने। आज विषय नहीं है। लेकिन हम विषय से विषयांतर भी नहीं होना चाह रहे। आज हमें खुशी होती। गुरु महाराज भी होते। और हम जेष्ठ मुनिराज का 46 वां दीक्षा दिवस मना रहे होते। गुरु महाराज बोले, मुझे इस पत्र ने निचोड़ दिया है। आंखों से आसूं आ गए। निचोड दिया है। झकझोर दिया है। जैसे न्यायिक हिरासत होती है व्यक्ति की। बोलते कि मैं क्या करूं। मैं तो यह समझ रहा हूं कि कोई पूर्व जन्म का बैरी मुझसे बदला ले रहा है। बस मुझे समता से सहन करन है। बस अब बहुत हो गया। कुछ नहीं करना। मैंने अपने लिए क्या किया। क्या मैंने अपने नाम कुछ किया। सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी दे दी। किरस कर लिया। सिर्फ क्या और किसके लिए। जो अपने नहीं हैं। उनके लिए अरे हम धर्म ध्यान करने में जो हमारे लिए बाधक बन रहे हैं। अब चलो हम इस दुनिया से दूर चलते हैं। और कालांतर में सुना आप सब ने आसमानी हो गए। वो ऐसा दुखद पहलू थे। हम चूंकि सागर में हमारा बहुत रहना हुआ। जब से यहां आए हैं। बड़ी उधेड़-बुनों के साथ सुन रहे हैं।

ऐसा… ऐसा…ऐसा। बड़ा दर्द होता है कि सागर जैसी समृद्ध समाज, श्रावक श्रेष्ठि कहां ये कचरे में फंस गए। सर जमीं तो उसने चुनी ललितपुर उत्तरप्रदेश और फंडिंग करने वाला राजस्थानवासी। और उसने जमीन कौन सी चुनी… मध्यप्रदेश सागर और। उसकी भनक कहां तक पहुंची। महाराष्ट्र सिरपुर तक और गुरुजी ने देखो क्या सब। स्थान को छोड़ के एकांत में चंदगिरी चले गए। अपने आचार्य पद का त्याग भी करता हूं। जो मेरे पास अंतिम में है। मैं निर्विकल्प होना चाहता हू। बस इतना ध्यान रखना। किसी से कुछ नहीं कहना। नहीं तो मुझे बहुत अशांति हो जाएगी। मैं ठीक ढंग से अपनी समाधि भी नहीं कर पाऊंगा कि उस कलंक को उस पाप को कैसे भी धोना है। गुरु महाराज ने सागरवासियों को बहुत कुछ सौगातें दी हैं। हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि इस कालिख को मिटाना है। दिल और दिमाग से स्थान से क्योंकि कालिख हमारे गुरुजी को ले के गई है। अल्प समय में जाने को मजबूर किया। वे तो श्रेष्ठ साधक थे। बोलते थे कि मुझे किसी की आवश्यकता नहीं। ऐसी निर्दोष चर्या के धारी जिन्होंने पूर्ण संलेखना व्रतपूर्वक सुमरण समाधि मरण किया। पूर्ण चेतना और जागृति के साथ। ऐसी पवित्र पावन भूमि चंद्रगिरी सिद्ध भूमि में परिवर्तित हो गई है।”   06/05/2025 

 

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