चौपाल/चौराहा

अग्निवेश : तर्क की कट्टरता का स्वामित्व

अग्निवेश के साथ जो हुआ वह सर्वथा अनुचित है।…संविधान में प्रदत्त अधिकारों के नजरिए से और जितने भी नजरिए रहते हों लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत उन सभी के अनुसार अग्निवेश के साथ हुई मारपीट अमानुषिक आपराधिक कृत्य है। लेकिन विचारणीय यह भी है कि जो संविधान उन्हें अपने भाषणों में प्रगतिशील बातें बोलने की स्वतंत्रता देता है, वही संविधान नागरिकों को अपनी आस्था की स्वतन्त्रता देता है। आस्था चाहे पत्थर में हो, बर्फ में हो, गौमूत्र में हो, खाली आले में हो ,शून्य में हो, आसमान या अग्नि में हो। अपने पूजा पद्धति की स्वतन्त्रता इसी संविधान में दी गई है जिसका हवाला अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए दिया जाता है।

…लेकिन जब प्रगतिशील और सैक्यूलर अभिव्यक्ति मुखर होती है तो उसके लिए संविधान की सिर्फ उन धाराओं के सम्मान का आग्रह दिखाई देता है जिनसे उनका हित सधे। किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना भी अपराध है लेकिन उसे संविधान की इस धारा की चिंता नहीं है । यह कहां की भाषा है कि ‘देश का प्रधानमंत्री नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में दो दो घंटे अमुक तरह के कपड़े और त्रिपुंड लगा कर पंडागिरि कर रहा है।’ …क्या नरेन्द्र मोदी को अपनी धार्मिक आस्थाओं ,पहनावे, और जीवनशैली की आजादी नहीं है? और अग्निवेश जी आप जो भगवा कपड़े पहनकर स्वामी लिखे फिरते हो इसके पीछे प्रगतिशीलता और विज्ञान है, यह जायज हैं? आपकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है उतने से तीन गरीब आदमियों का कुर्ता धोती बन जाए।

अमरनाथ की शिवलिंग संरचना प्राकृतिक कारणों से बनती है यह तुम्हारे बताने से पहले ही हर अमरनाथ यात्री जानता है। लेकिन विद्रूप तरीके से अभिव्यक्त कर आलोचित करना आपकी आवश्यकता है।…क्या आप विनम्र शब्दों में अपना वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं रख सकते। इसपर उत्तेजक भाषण देना उचित है? इस तर्क को भी सहिष्णुता पूर्वक क्यों नहीं लिया जाना चाहिए कि बर्फ की एक प्राकृतिक संरचना होने के बाद भी उस पर करोड़ों लोगों की आस्था है। …लेकिन व्यंग्यात्मक लहजे में आस्था की मजाक उड़ाने को हम सब आपकी सहिष्णुता कहने के लिए बाध्य किए जाते हैं। आपको ‘एक बर्फ के पिंड’ के इर्दगिर्द सैकड़ों सालों में सहजता से बुना गया पर्यटन, अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक और सामाजिक विनिमय का स्वस्थ और सुंदर तानाबाना दिखाई नहीं देता।…कुंभ जैसे आयोजनों में तुम्हें सिर्फ नहाने की क्रिया दिखाई देती है। इसके अलावा सांस्कृतिक चेतना का स्पंदन सुनाई नहीं देता। चीजों की सिर्फ एकपक्षीय व्याख्या तो विज्ञान भी इस कट्टरता से नहीं करता। तुमसे अच्छा एकांगी वाममार्ग तो आस्थावानों के पास तांत्रिक शाखाओं में है।

विविधता के संरक्षण के लिए प्रगतिशीलों को भी अपनी दृष्टि उदार करना होगी। सिर्फ तुम ही नहीं आए हो इस भारतभूमि पर जो लोगों को तर्कों से (नहीं तो गोली बारूद से भी) बदल डालोगे। हजारों साल से अधुनातन चिंतन की चार्वाक ,सांख्य, आजीवक, श्रमण परंपराए जनमती रहीं, विकसित होती रहीं। तुम क्या बोलोगे जो कबीर बोल गये अंधविश्वास के बारे में। उनका सम्मान तब भी हुआ और अब भी है। दयानंद सरस्वती ने भी वैदिक ज्ञान में और मान्यताओं के तर्कपूर्ण प्रचार के लिए वैचारिक कट्टरता का सहारा नहीं लिया।

…और वे जो एक 75 पार बुजुर्ग की मुंह से कही बातों पर उसे आड़ा लिटा कर पीटते हैं, उनका क्या करें!?… तुम लोग अपनी ही विचारधारा को पीछे ढकेल रहे हो ऐसा करके। तुम्हारे विचारों का मौलिक अधिष्ठान ही संवाद, साहचर्य और सहिष्णुता है। अंहिसा के अलावा इनको फैलाने का और कोई रास्ता नहीं। पिछले एक हजार साल ने यह सिखाया है कि ताकत आत्मरक्षार्थ ही अनिवार्य है आक्रमण हेतु नहीं। प्रेम और अहिंसा के सुरक्षा कवच के रूप में ताकत का अस्तित्व रहने दो, न कि इनके प्रचार प्रसार के औजार के रूप में। धैर्य से सुनना, सहन करना पर अडिग रहना। बलपूर्वक धारणा लादने आए तत्वों पर ही नियंत्रित बल प्रयोग करना नीति होनी चाहिए। यह ध्यान रखो हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है जिसमें दुनिया के धर्म आस्थाओं मान्यताओं रंग रूप आकार परिवेश की सुंदरतम विविधताओं का संग्रह है।

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!