साहित्य और संस्कृति
शनीचरी का ” सिब्बू पागल”
सागर वाणी डेस्क।9425172417
कहानी : सिब्बू पगलैट
सिब्बू पगलैट कई दिनों तक बुंदेलखण्ड के इस कस्बानुमा शहर में ,बस स्टैंड के आस-पास की व्यस्त सड़कों पर लंगड़ाता हुआ बदहवास फर्राटा दौड़ लगाता नज़र आता । जैसे उत्तेजना और हिंसा से भरा किसी का पीछा कर रहा हो । वो किसी को चोट पहुंचाना चाहता था । पर किसे ? ये कोई जानता ना था । कम चर्बी की काली अधेड़ उम्र वाली काया में हड्डियॉं और नसें झांकती रहतीं । उसके बाल छोटे होते…ना जाने कौन और कैसे इन्हें कटवा देता था ? तेल और मैल से चिक्कट उसके कपड़े होते । मुंह से छूटता झाग और थूक वह खाखारता थूकता चलता,जो उसकी बेतरतीब दाढ़ी मूंछों पर भी लगता जाता । दोनों हाथों में पत्थर या ईंट के कुछ टुकड़े होते जिन्हें वह बिना लक्ष्य के सड़क पर अंधाघुंध सन्नाता चलता । इससे बेपरवाह , की उसके फेंके पत्थर राहगीरों में किसे लगते हैं -किसे नहीं । हैरान कर देने वाली फुर्ती और ऊष्मा से लबरेज सिब्बू का तमतमाया चेहरा लगातार परिश्रम और तैलीय पसीने से चमक रहा होता । उसकी आँखें दहक रही होतीं । वह क्या कुछ बुदबुदाता बड़बड़ता ? शायद ना समझ में आने वाली गालियॉं होतीं । बस बार-बार आने वाले जो कुछ शब्द समझ में आते । –
‘हाट हट हाट हट हट्ट । भाग भग भग्ग । हम मार दे हैं ।’
वो किसी अदृश्य को फुंफकारता ललकार रहा होता । उसकी ये सक्रियता किशोर छात्रों के स्कूलों से पैदल आते-जाते समय अधिक होती । स्कूली बच्चे उसे देख मारे डर के किनारा कर लेते, किसी आड़ में दुबक जाते । कभी सुना नहीं कि उसके किसी वार से कोई घायल हुआ हो । खूंखार नजरें टिकाये सिब्बू किसी राहगीर की ओर शिकारी की तरह सरपट लपकता । भयभीत राहगीर के प्राण डर के मारे सूख जाते , पलक झपकते सिब्बू उसकी साइड से होकर बिना किसी हरकत के दूर निकल जाता ।
किशोरों के कुछ समूह सिब्बू पगलैट की नब्ज़ पहचानते । दूर से चिल्लाते :
– ‘ जय हो डमरू राजा ’
उत्तेजित सिब्बू पगलैट शायद इस वाक्य के शब्दों को ही पहचानता । इस वाक्य का जादू सा असर होता सिब्बू पर । वो तुरंत रुकता । क्रॉस किये हुए डेढ़ पैर पर दोनों हाथ ऊपर किये स्टेचयू की तरह स्थिर हो जाता । उसके शरीर की मुद्रा तांडव कर रहे शंकर जी से मिलती हुई हो जाती । वह एकदम अविचल और शांत होता । उसके सजल नेत्र कभी आसमान की ओर तो कभी आनंद के भाव से बंद होते ।
सिब्बू की जीवनसंगिनी भग्गो, उम्र में सिब्बू से खासी बड़ी थी । अशक्त, बीमार और लगभग बूढ़ी हो गई भग्गो और सिब्बू का ये जोड़ा कब और कैसे बना ? कोई नहीं जानता था ।
कई साल पहले भग्गो का इकलौता जवान पर कृशकाय बेटा भी था । भग्गो की ये औलाद सिब्बू से थी या किसी पूर्व संबंध से ? कहा नहीं जा सकता था । बीमार ही बना रहता । भग्गो के बगल से उकडूं , घुटनों पर सिर टिकाए बैठा रहता । भग्गो तब तक थोड़ा बहुत चल-फिर लेती थी ।
ज्यादा बीमार हुआ, कुछ दिन जिले के सरकारी अस्पताल में भरती बना रहा और एक शाम चल बसा । सिब्बू ने हाथ ठेले पर बेटे की लाश रखी और अंतिम संस्कार की चिंता लिए अस्पताल से निकला । विलाप करती हुई भग्गो अकेली हाथ ठेले के पीछे थी । भग्गो स्यापा में करुण रूदन के साथ कहती चली –
– ‘ ए मोरी माता, ए मोरे राम ए ठठरी के बंधे खों अबईं मरने हतो ।’
– ‘ ए नास के मिटे । दाबा काबा होतई काए नें मर गओ ।’
भग्गो के पास पुत्र शोक व्यक्त करने को ये ही तो शब्द थे ।
वो दिन था कि भग्गो की आवाज़ जैसे चली गई । साथ में आखों की रोशनी भी जाती रही । दिन-रात एक जगह कांखती- कूलती पड़ी रहती । सालों उसके तन पर एक ही मैली सिन्थेटिक साड़ी होती । उसके आस-पास साफ-सफाई ना होने के कारण मक्खियॉं भिनभिनातीं , दुर्गंध बनी रहती । बदसूरत भग्गो के मुंह में एक दो बाकी पीले-मैले हिलते हुए दांत । बेतरतीब बंधे हुए खिचड़ी बाल, काले चेहरे की झुर्रियॉं,धंसी हुई आखें उसे डरावना बनातीं । तब तक सिब्बू पागल नहीं हुआ था । सिब्बू उसके अपने हाथ ठेला की मजदूरी करता- पूरी मशक्कत से । मोहल्ले में हाथ ठेला ढुलाई का जो काम मिलता- कर लेता । घर-द्वार जैसा कुछ था नहीं । हाथ ठेले के नीचे की छड़ों से बिस्तर के दरी -चादर और पानी का कुप्पा बंधा होता । गृहस्थी के नाम पर दो-चार एल्यूमीनियम के बरतन होते। दिन भर आस-पास रहकर काम करता । जहॉं जो जगह मिलती भग्गो के साथ दरी चादर बिछा कर सो रहता । हिन्दू मुसलमानों के मिले-जुले मुहल्ले में जहॉं जो मजदूरी के पैसे मिलते नुक्कड़ की छोटी होटल से चाय, समोसा, आलू बंडा,डबल रोटी जैसी चीजें खरीद लाता । आप खाता, भग्गो को खिलाता । फिर ठिकाना मिल गया था सिब्बू को । ढालू फर्श पर सार्वजानिक कचरा घर के सामने मुहल्ले के एक पक्के मकान की बालकनी । नीचे सड़क से लगी सीढ़ियों के साथ बना हुआ एक सीमेंटेड चबूतरा । मकान अक्सर खाली बना रहता, कोई रोक-टोक करने वाला था नहीं । धूप और बारिश से बचने सिब्बू ने भग्गो के साथ इसे ही अपना आशियाना बना लिया ।
समय के साथ लगभग अंधी हो चुकी भग्गो चिड़चिड़ी, मतिभ्रम की शिकार और अशक्त होती चली गई । चबूतरे के एक कोने में पड़ी रहती, अपनी जगह से सरक भी नहीं पाती । सोने-खाने का कोई निश्चित समय नहीं । कई-कई दिन के अंतराल के बाद कपड़ों में ही निवृत्त हो लेती । बदबू इतनी होती कि राहगीर अपनी नाक ढंक कर निकलते । सिब्बू काम से लौटता, पास के हैण्ड पंप से कुप्पे में भर कर पानी भर लाता । जैसा भी बनता भग्गो और चबूतरे की साफ सफाई करता । मल और गंदगी ठिकाने के सामने बने कचरे घर के हवाले करता । कुछ फर्श पर लगातार बहती नाली के भी । कभी-कभार भग्गो को हेण्ड पंप के पानी से नहला देता, भूरे सफेद बदरंग बालों में कुछ तेल लगा कर गूंथ देता ।
सिब्बू की ज़िंदगी बस भग्गो ही थी । भावनात्मक तौर पर उसके जीने का सहारा थी पर उसकी जिंदगी को कठिन बनाने का सबब भी । अकारण कर्कश स्वर में चीखती और रोती और बहुत कम और पोपले मुंह के अस्पष्ट आवाज़ में बड़बड़ाती …
– ‘ ऐ सिब्बू कहॉ मर गओ रे । पियत कौ पानी दै दे …।’
भग्गो रात-बिरात जागती रहती अकारण बड़बड़ाती, रोती । थका हारा सिब्बू जेब में कुछ रकम होने पर कभी-कभार शाम को शराब पी लिया करता । सिब्बू खीझ जाता, झुंझला जाता, मां बहिन की गालियॉं देते हुए , भग्गो को लतिया देता –
– ‘ चंडोलन पिरान लै ले मोरे । नैं सोय नें सोन देय । कहॉं से मोरे गले बंध गई । जल्दी टर जा । मरत भी तौ नईयॉं ।’
– ‘अब सो जा अबेर भई ।’
यूं तो बब्बू, भग्गो को बेइंतहॉं चाहता था पर जताने के लिए उसके पास ये ही शब्द थे ।
देर रातों में भग्गो बेवजह खराश वाले भर्राए गले से दहाड़ मार कर रोती । आवाज से पास -पड़ोस के घरों की लाइट जल जातीं । कुछ लोग खिड़कियों और दरवाजों की दरारों से झांकने उठ बैठते । जो जानते थे कि भग्गो की आवाज़ है जाग कर भी बिस्तरों पर बने रहते । कुछ बाहर निकल के आवाज़ लगाते-
– काए रे सिब्बू ? काए रुआ रओ भग्गो खों ? मुहल्ला खों सोन दे है के नईं ? ’
कुछ रहमदिल तीज त्यौहार और दूसरे मौकों पर भग्गो के चबूतरे पर कुछ खाने-पीने का सामान आवाज लगा कर रख जाते । पर भग्गो थी कि सिब्बू के हाथ के अलावा कुछ भी मिले खाती ही नहीं थी ।
उज्जड्ड मनचले छोरे , फर्श गली से गुजरते कुछ देर बब्बू-भग्गो के इस ठिकाने पर रुक के मनोरंजन तलाशते । भग्गो को छेड़ते –
– ‘ काए भग्गो डार्लिंग ? कहॉं गओ तुमाओ सिब्बू डुकरा ?’
भग्गो तो जैसे बोलना, जवाब देना या बातों को समझना भूलती जा रही थी ।
वे भग्गो को चिढ़ाते… भग्गो चिल्लाती-चीखती तो उनका मज़ा और भी बढ़ जाता । भग्गो पर पानी ,कंकर, बीड़ी के अधजले टुकड़े फेंकते । सिब्बू के साथ रहते भी मनचले कई बार भग्गो को कंकर कचरा मारते । सिब्बू उन्हें रोकने गिड़गिड़ता, मिन्नतें करता ।
उस शाम जब सिब्बू अपने काम से वापिस लौटा अपना हाथ ठेला सार्वजनिक कचरा घर के पास किनारे खड़ा कर के टिकाया । देखा भग्गो बेसुध सी घायल पड़ी थी, कई जगहों से खून बहकर सूख गया था । उसके आस पास कुछ गिट्टी के टुकड़े थे । ना जाने कौन भग्गो को चोटें पहुंचा गया था ? शायद आवरा कुत्तों का हमला रहा हो । सिब्बू उदास था पर करता क्या ? पास के बनिए की दूकान से दो रुपये का सरसों का तेल ले आया । भग्गो के घावों पर लगाया । भग्गो अब भी तड़फ-कलप रही थी … पर ये कोई बहुत अलग नै बात ना होकर उसकी रोज़ की हरकतों से थी । हॉं , भग्गो की सांसों की घरघराहट कुछ ज्यादा जरूर थी । उसी रात तेज बारिश के बीच भग्गो की सांस चलना बंद हुई, देह ठंडी हुई । सिब्बू को समझ में आ गया कि भग्गो चली गई । शून्य में ताकता रात भर भग्गो के शव के पास बैठा रहा । ढालू फर्श पर बरसाती पानी किसी बहते हुए नाले की आवाज़ कर रहा था । भग्गो की लाश को मुहल्ले के लोगों ने नगर पालिका की मदद से ठिकाने लगवाया । इसके बाद शहर ने सिब्बू को अदृश्य से जूझते आतंकी सिब्बू पगलैट की तरह देखा और जाना …।
– समाप्त

कहानी के आखिर में यह चित्र कथाकार डॉ.नवनीत धगट का है। उनका शेष परिचय यूं है कि …..8, सनराइज रेसीड़ेंसी, राजघाट रोड तिली, सागर
भ्रमण भाष – 9827012124 dhagatnavneet@gmail.co



