बाघों के खात्मे से जैव विविधता ही बदल गई है
(बाघ संहारकथा – भाग दो)
सागर जिले के नौरादेही अभ्यारण्य की कहानी भारत में बाघों के संहार की इसी कुत्सित तस्वीर का हिस्सा रही है। सन् 1990 में नौरादेही अभ्यारण्य के जंगलों में शेर होने का सरकारी आंकड़ा 24 होता था। 2000 का साल आते आते 14 बताया जाने लगा। नौरादेही में एक शेर की कुछ तस्वीरें एक अफसर श्रीनिवासन मूर्ति ने ली थीं। बड़े ही दुबले पतले घास में छिपे उस शेर की एक तस्वीर लंबे समय तक मेरे पास भी रही। यह संभवतः 1995 के आसपास ली गई होगी। इसके बाद से आज 22 साल बाद तक कोई शेर वहां नहीं दिखा। सन 2000 में मैंने जिले में पहली बार दैनिक जागरण में लिखी रिपोर्ट में दावा किया था कि वहां कोई शेर नहीं है। 8 से 14 तक बदल बदल कर फ्लक्चुएट करके बताई जा रही संख्या सिर्फ जंगल विभाग का टेबल वर्क थी। इसके बाद ईटीवी मप्र के लिए रिपोर्टिंग करते हुए 1995 तक जो वाकये मेरी निगाहों से गुजरे उस पर सिर्फ शोक ही मनाया जा सकता था। क्योंकि सरिस्का टाईगर रिजर्व, पन्ना टाईगर रिजर्व के पचास साठ बाघों के एक साथ लुप्त हो जाने की खबरों ने नौरादेही की कहानी पर मिट्टी डाल दी। लेकिन सच यह था कि नौरादेही अभ्यारण्य के बाघों से ही एक खास इलाके के तस्करों ने यह सिलसिला शुरू किया था जो पन्ना फिर सरिस्का पहुंचा। हालांकि खबरों की दुनिया के नजरिए से देखें तो सरिस्का का बाघ संहार पहले सामने आया फिर पन्ना की पोल खुली। इन दोनों की जननी बना नौरादेही अभ्यारण्य का बाघ संहार कुशलता से वन अफसरों और सरकार ने दबा दिया।
मेरी स्मृति में आज भी कुछ वाकये दर्ज हैं। सन् 1999 के बाद से सागर शहर के आसपास बाघों तेंदुओं की खालें पकड़े जाने की घटनाएं सामने आना शुरू हुईं। सागर विवि से देवरी जाने वाले मार्ग पर स्थित बम्हौरी तिगड्डे से लेकर तेरह मील नामक बसाहट के बीच एक शिकारी जाति के कुछ परिवारों की आपसी विवादों से कुछ सूचनाएं शहर की पुलिस तक पहुंची। अचानक इन परिवारों में धन की बाढ़ आ गई थी। सूचनाओं पर काम हुआ तो मोतीनगर क्षेत्र की मौलाली पहाड़ी से कुछ कुचबंदिया महिलाएं शेरों की खाल सहित पकड़ी गयीं। फिर कुछ और मामले पकड़े गये। उस समय के मोतनगर थानाप्रभारी और शहर तेजतर्रार बाज स्क्वाड ने पूरा माजरा समझा। लिंक साफ थी, सीधे दिल्ली के संसारचंद तक का खाका पूछताछ में स्पष्ट था।
जांचदल गठित होकर सागर से दिल्ली पहुंचा तो टीम को लगा कि जिनके नाम बताए जा रहे हैं वे सीधे सीधे धमकियां दे रहे हैं और साथ में रिश्वत के आफर भी। तस्करों की चुनौती साफ थी कि यहां तक आ गये हो पकड़ना तो दूर वापसी के लाले पड़ सकते हैं, और मदद भी मांग कर देख लो नहीं मिलेगी। टीम में शामिल एक आरक्षक ने अपनी आपबीती रिटायरमेंट के बाद सुनाई कि दिल्ली पुलिस से मदद मांगी तो कहा गया कि जो लेना देना हो पार्टी से निपटाओ, हम लोगों के पास इन छोटेमोटे मामलों के लिए वक्त नहीं है। सागर पुलिस बैरंग लौटी। फिर कुछ खालें जिले में बरामद हुईं। 2003 में कोतवाली थाने के तहत एक ट्रासपोर्टर के बाहर एक आटोरिक्शा चालक गत्ते के कुछ कार्टन लावारिस छोड़ गया। सूचना पर पुलिस पहुंची तो तीन बाघों दो तेंदुओं की पूरी खालें और हड्डियां बरामद हुईं। तब कोतवाली थाना एक प्रभारी सब इंसपेक्टर सम्हाल रहा था। बाइट लेने पर वह हंसकर बोला रजनीश जी ज्यादा एक्साइट मत होओ। जरूरी नहीं ये ओरीजनल खालें हों, रंगी पुती भी हो सकती हैं। परीक्षण के बाद ही कंन्फर्म करूंगा कि खालें शेर तेंदुओं की हैं। इस रिएक्शन ने यह तस्दीक कर दी कि सागर की तत्कालीन पुलिस दिल्ली पुलिस की सलाह पर हमेशा के लिए अमल कर चुकी है। यह काम तो पुलिस कर रही थी, जंगल वाले क्या कर रहे थे यह पता ही नहीं चलता था। लेकिन यह साफ था कि कुछ शिकारी परिवार इस काम में लगे थे।
2007 के आसपास सरिस्का और फिर पन्ना टाइगर रिजर्व के बाघविहीन होने की खबरें उजागर हुईं तो देश के दूसरे नेशनल पार्कों में बाघों की तस्दीक हुई। पता चला कि लापता टाइगरों की तादाद सैकड़ों में है और सबके पीछे एक ही गिरोह है जिसका सरगना संसारचंद है। देशव्यापी हलचल के बीच जब कई राज्यों की पुलिस और फारेस्ट महकमे अपनी करतूतों पर मुंह छिपा रहे थे तब सीबीआई ने संसारचंद के संसार को पकड़ा। तब तक सागर से जुड़े गिरोह नौरादेही, पन्ना के बाद सिवनी, बालाघाट और छिंदवाड़ा के जंगलों की तरफ कूच कर चुके थे। ये छुटपुट रूप से लगातार सक्रिय रहे और पिछले दो सालों का पैटर्न बताता है कि देश में फिर कोई या कई संसारचंद पैदा हो चुके हैं । हालांकि संसारचंद की मौत जेल में सजा भुगतने के दौरान हो चुकी थी। नौरादेही के करीब रानगिर के जंगलों में, बहरोल बांदरी, बरायठा, मढ़ैया गौड़, धामौनी, जुझारघाट, मालथौन के जंगलों में शेरों की उपस्थिति बीते बीस पच्चीस सालों में यदा कदा दर्ज होती रही है। कभी शवों के रूप में तो कभी किंवदंतियों के रूप में उनकी मौजूदगी पता चलती रही है, लेकिन संरक्षण की कोई रूचि न जनता ने दिखाई ने सरकारी अमले ने। जबकि ये जंगल शेरों के लिए आज भी सबसे अनुकूल प्राकृतिक आवास है। नेशनल पार्कों और अभ्यारण्यों से विस्थापित शेरों ने इसी इलाके को तरजीह दी है। लेकिन उप्र की सीमा पर होने के कारण वन महकमा यहां शेरों की सुरक्षा की गारंटी लेने तैयार नहीं होता।


सागर के मामले में संसारचंद से जुड़ी जो सूचनाएं मिला करती थीं उनमें यह भी थीं कि सागर जिले के जलंधर, काछीपिपरिया के जंगलों के कीमती चंदन के वृक्षों का खरीददार भी वही था। इस काम में दर्जनों लोग लगे थे जो यदा कदा खानापूर्ति के लिए पकड़े भी जाते थे। लेकिन चंदनकटाई के इस अवैध कारोबार में सबसे खतरनाक सूचना जो मिलती थी वह सागर रेलवे के पार्सल सैक्शन की साठगांठ की मिला करती थी। चंदन तस्करों ने जलंधर और काछीपिपरिया के चंदनवन साफ करने के बाद सागर विश्वविद्यालय की पहाड़ी और फिर वहां के बाटनी गार्डन तक के चंदन के बड़े झाड़ काट डाले। टीकमगढ़ के कुंडेश्वर के एतिहासिक चंदन वृक्षों ले गये। इन दिनों चंदन तस्करों की निगाह विधायक पारुल साहू के पिता संतोष साहू के फार्महाउस और खुरई के जंगलों की कुछ बीटों में लगे चंदन वृक्षों पर है। दो दिन पहले ही भोपाल के तस्कर खुरई के जंगलों में चंदन काटते धरे गये हैं।
भोपाल के शिकारियों और तस्करों के हालिया निशाने पर सागर जिले की वनसंपदा और वन्यजीव हैं। गौहत्या पर सख्ती के बाद सागर जिले की नीलगायें और काले हिरण उनका मुख्य निशाना हैं। मंहगी कारों और आधुनिक टेलिस्कोपिक राइफलों से लैस होकर आ रहे भोपाल इलाके के शिकारियों की हलचल राहतगढ़,बीना, खुरई, खिमलासा, मालथौन, शाहगढ़, बंडा, जैसीनगर तक है। यूपी का ललितपुर जिला तक इनकी चपेट में है। एक समुदाय विशेष की स्थानीय लिंक के माध्यम से ये शिकारी नीलगाय और हिरणों की बहुतायत से खेती में हो रही हानि वाले इलाके को टारगेट करते हैं। फिर स्थानीय दबंग या पंचायत प्रतिनिधि से जानवरों के आवागमन के ठीक ठीक स्थान का चुनाव करके कुछ ही मिनटों में चार, छह से ज्यादा तक जानवरों का शिकार कर सफारी, सूमो जैसे वाहनों में लादकर रवाना हो जाते हैं।



रिजर्व फारेस्ट एरिया के भीतर और सरहदों पर डेरा बना कर रहने वाली शिकारी जातियों ने बुंदेलखंड के जंगलों की जैवविविधता को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। इनके डेरों से आज भी खुलेआम फांदी लगाकर पकड़े गये तीतर, बटेर, खरगोश बेचे जाने की खबरें मिलती हैं। यही लोग हिरणो, मोरों, सूअरों का शिकार करते हैं। बुंदेलखंड में पायी जाने वाली कस्तूरी बिल्ली जिसे ग्रेट इंडियन सिविट कहते हैं, पेंग़ोलिन जिसे यहाँ साड़ोगाड़ो कहते हैं, साही, तंत्र क्रिया में इस्तेमाल हो रहे बड़े उल्लुओं की प्रजातियों, दवाइयों में उपयोग हो रही छिपकलियां, सांप, गोहें , हरियल, वनमुर्गों तक के शिकार इन शिकारी डेरों से संचालित होते हैं। अनपढ़ और पिछड़ी दिखने वाली इन शिकारी जातियों के कनेक्शन दवा बेचने वाले फुटपाथी हकीमों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय तस्करों तक होते हैं। हजारों की तादाद में बिखरे शिकारी डेरों को पकड़ने के लिए सागर संभाग के वन अमले के पास प्रशिक्षित कुत्तों की टीमें तक मौजूद हैं पर शिकारियों की पकड़ धकड़ करने के बजाए अखबारों की स्टोरियां बनवा कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहने का पाखंड यहां के वनविभाग को खूब आता है।
बाघों के खात्मे की एक वजह जंगलों को आमदनी के साधन के रूप में विकसित करना भी रहा है। मिश्रित वनों का एक बड़ा हिस्सा वन महकमे वालों ने इमारती लकड़ी सागौन के जंगलों में तब्दील कर दिया है। बेल, तेंदू, चार की चिरौंजी, रूसल्ला, महुआ, बड़, ऊमर जैसे जंगलों में उगने वाली सैकड़ों प्रजातियों के फलदार वनवृक्षों को सागौन के जंगलों ने लील लिया है। नतीजा यह हुआ कि एकल वनों से भोजन के अभाव में बहुत सी नस्लों के शाकाहारी जंगली जीव नष्ट हुए हैं। इनकी भोजन श्रंखला के ऊपर वाले मांसाहारी प्राणी इसलिए कम हुए क्योंकि उनके भोजन बनने वाले शाकाहारी प्राणियों की तादाद घट गई है। वनोपज के रूप में फलों और वन औषधियों को वैध अवैध तरीकों से फारेस्ट डिपार्टमेंट ही निकलवा रहा है। यह जानते हुए भी समझना कोई नहीं चाहता कि मिश्रित वन ही वास्तविक वन हैं। सागौन से भरे जंगल दरसल जंगल नहीं वे वनीकृत खेत हैं जो शासन ने अपनी नगदीफसल के रूप में खड़े किए हैं। … तो समीकरण यह बनता है कि रूपये कमाने के लिए पहले जैवविविधता नष्ट कर लो फिर जैवविविधता बढ़ाने के लिए करोड़ों अरबों रु खर्च करो। लेकिन यहां याद रहे की जैवविविधता हजारों सालों का परिणाम होती है। एक बार जो प्रजाति खत्म हुई उसे दोबारा नहीं लाया जा सकेगा। बाघ की तरह बाहर से लाओगे भी तो स्थानीय विशेषताओं से भरी बाघ की स्थानीय उप प्रजाति से आप सदैव के लिए वंचित हो चुके होओगे।
पानी के स्रोतों, अंडरपास के अभावों से सड़कों पर आ रहे वन्यप्राणियों के सड़क पर वाहनों से और रेल पटरियों पर मरने की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। पानी का संकट तो यहां के ग्रामीण इलाकों में इतना भयावह है कि चारटौरिया गांव में बीते साल नीलगायों का एक पूरा झुंड ही खेत में बने कुंए की भेंट चढ़ गया था। लेकिन आंकड़ों में जंगलों में बनी जलसंरचनाओं की भरमार हर रेंज, बीट और हर कंपार्टमेंट में मिलेगी।



