जल,जंगल और जानवर
क्या भारत में मौसम की मार झेल रहे हैं अफ्रीकी चीते
सागर वाणी डेस्क। 9425172417सागर। जाड़ा आता है तो हम गरम कपड़े पहन लेते हैं। लोग अक्तूबर से ही रजाइयां और कंबल को धूप दिखाने लगते हैं। ताकि, जाड़े की तैयारी हो सके। लेकिन, जानवर क्या करते हैं। जाड़े के मौसम में बहुत सारे जानवरों के बाल बड़े हो जाते हैं। उनके शरीर पर अतिरिक्त बाल आ जाते हैं। जो उन्हें ठंड से बचाते हैं। लेकिन, कूनों में अफ्रीकी चीतों की जान शायद यही विंटर कोट या विंटर फर ले रहे हैं। अनुमान है कि वो उनकी मौत की वजह बन रहे हैं।
अफ्रीका के नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से अभी तक भारत में बीस चीते लाए गए हैं। इन सभी को मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बसाया गया। लेकिन, इसी साल मार्च से लेकर अभी तक इन बीस में से छह चीतों की मौत हो चुकी है। एक मादा चीते ने चार शावकों को जन्म दिया था। लेकिन, इनमें से भी तीन शावकों की मौत हो चुकी है। यानी मार्च से लेकर अभी तक की इस छोटी सी अवधि में ही कुल मिलाकर नौ चीतों की मौत हो चुकी है। उनका कुनबा बढ़ने की बजाय घट रहा है। उनकी जान दांव पर लगी हुई है। बुधवार को धात्री नाम की मादा चीता जिसे पहले तिबलिसी के नाम से जाना जाता था, उसका शव बरामद किया गया है। फिलहाल मौत की असली वजह जानने के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार करने की बात कही जा रही है। लेकिन, इतने कम समय में नौ चीतों की मौत ने इस पूुरी परियोजना के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। कुछ विशेषज्ञ अफ्रीका और भारत के मौसम में अंतर को इसकी बड़ी वजह बता रहे हैं। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया में जाड़े का मौसम हमारे यहां से अलग समय पर आता है। जब मैं गूगल से इसके बारे में जानकारी मांगता हूं तो पता चलता है कि दक्षिण अफ्रीका में जून से लेकर अगस्त तक का महीना जाड़े का होता है। जबकि, नामीबिया में जून से लेकर सितंबर तक का महीना जाड़े का होता है। इस दौरान यहां पर ठंड पड़ती है। हमारे यहां जो चीते लाए गए हैं वे दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए हैं और वहां के मौसम के हिसाब से ही ढले हुए हैं। उनकी जैविक घड़ी उन्हें यह बता रही है कि जाड़े का मौसम आ गया है। इसके चलते उनके शरीर पर विंटर कोट या विंटर फर विकसित हो गए हैं। यानी शरीर पर ठंड से मुकाबले के लिए अतिरिक्त बाल आ गए हैं। जबकि, भारत में यह मौसम चिपचिपी गर्मियों वाला है। उमस इतनी होती है कि बदन पर पसीना नहीं सूखता है।
माना जा रहा है कि उमस और पसीने से भीगे रहने के चलते चीतों के गले में पहनाए गए रेडियो कॉलर से उनके गले में खरोंचे पैदा हो रही हैं। उमस भरे वातावरण के चलते इन खरोचों के घाव भर नहीं रहे हैं और उनमें इंफेक्शन पैदा हो रहा है। मक्खियां इस इंफेक्शन को बढ़ा रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि हाल के दिनों में मारे जाने वाले चीतों के मामले में मौत की बड़ी वजह यही हो सकती है। भारत और अफ्रीका के मौसम में अंतर इन चीतों के लिए यहां पर जीवन दुष्कर बना दे रहा है। जरा कल्पना कीजिए अगर हम भी स्वेटर और जैकेट पहनकर उमस और गर्मी भरे जुलाई-अगस्त के मौसम में रहें तो हमें कैसा महसूस होगा। चिंता की बात यह भी है कि किसी भी जीव की जैविक घड़ी उसके लाखों सालों के इवोल्यूशन और एडाप्टेशन से बनती है। ऐसे में अब सवाल उठता है कि क्या ये चीते भारत के मौसम के हिसाब से इतनी जल्दी अनुकूलित हो पाएंगे। जो काम सैकड़ों-हजारों पीढ़ियों में हुआ करता है, वो काम क्या सिर्फ दो-तीन पीढ़ी में हो पाएगा। शायद यही वजह है कि कुछ विशेषज्ञों ने अफ्रीका से और चीते लाए जाने पर रोक लगाने की मांग की है। चीता एक खतरे में पड़ी प्रजाति है। पहले से ही उसके अस्तित्व पर संकट है। ऐसे में भारत में होने वाले चीते की यह मौतें किसी बहुत बुरी खबर से कम नहीं है। लेकिन, इस परियोजना पर शुरू से ही विशेषज्ञ यह कहकर सवाल उठाते रहे हैं कि हमारे देश में पहले जो चीते पाए जाते थे वे एशियाटिक चीते थे। जो कि हमारे यहां की जलवायु के हिसाब से अनुकूलित थे। लेकिन, हम जो चीते लाए हैं वे अफ्रीकी चीते हैं। जो अफ्रीका की जलवायु के हिसाब से अनुकूलित हैं। अब आगे देखिए, क्या होता है। हालांकि, चीतों के लिए भी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए भी किसी बहुत अच्छी खबर की उम्मीद अब कम ही है।
अफ्रीका के नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से अभी तक भारत में बीस चीते लाए गए हैं। इन सभी को मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बसाया गया। लेकिन, इसी साल मार्च से लेकर अभी तक इन बीस में से छह चीतों की मौत हो चुकी है। एक मादा चीते ने चार शावकों को जन्म दिया था। लेकिन, इनमें से भी तीन शावकों की मौत हो चुकी है। यानी मार्च से लेकर अभी तक की इस छोटी सी अवधि में ही कुल मिलाकर नौ चीतों की मौत हो चुकी है। उनका कुनबा बढ़ने की बजाय घट रहा है। उनकी जान दांव पर लगी हुई है। बुधवार को धात्री नाम की मादा चीता जिसे पहले तिबलिसी के नाम से जाना जाता था, उसका शव बरामद किया गया है। फिलहाल मौत की असली वजह जानने के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार करने की बात कही जा रही है। लेकिन, इतने कम समय में नौ चीतों की मौत ने इस पूुरी परियोजना के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। कुछ विशेषज्ञ अफ्रीका और भारत के मौसम में अंतर को इसकी बड़ी वजह बता रहे हैं। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया में जाड़े का मौसम हमारे यहां से अलग समय पर आता है। जब मैं गूगल से इसके बारे में जानकारी मांगता हूं तो पता चलता है कि दक्षिण अफ्रीका में जून से लेकर अगस्त तक का महीना जाड़े का होता है। जबकि, नामीबिया में जून से लेकर सितंबर तक का महीना जाड़े का होता है। इस दौरान यहां पर ठंड पड़ती है। हमारे यहां जो चीते लाए गए हैं वे दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए हैं और वहां के मौसम के हिसाब से ही ढले हुए हैं। उनकी जैविक घड़ी उन्हें यह बता रही है कि जाड़े का मौसम आ गया है। इसके चलते उनके शरीर पर विंटर कोट या विंटर फर विकसित हो गए हैं। यानी शरीर पर ठंड से मुकाबले के लिए अतिरिक्त बाल आ गए हैं। जबकि, भारत में यह मौसम चिपचिपी गर्मियों वाला है। उमस इतनी होती है कि बदन पर पसीना नहीं सूखता है।
माना जा रहा है कि उमस और पसीने से भीगे रहने के चलते चीतों के गले में पहनाए गए रेडियो कॉलर से उनके गले में खरोंचे पैदा हो रही हैं। उमस भरे वातावरण के चलते इन खरोचों के घाव भर नहीं रहे हैं और उनमें इंफेक्शन पैदा हो रहा है। मक्खियां इस इंफेक्शन को बढ़ा रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि हाल के दिनों में मारे जाने वाले चीतों के मामले में मौत की बड़ी वजह यही हो सकती है। भारत और अफ्रीका के मौसम में अंतर इन चीतों के लिए यहां पर जीवन दुष्कर बना दे रहा है। जरा कल्पना कीजिए अगर हम भी स्वेटर और जैकेट पहनकर उमस और गर्मी भरे जुलाई-अगस्त के मौसम में रहें तो हमें कैसा महसूस होगा। चिंता की बात यह भी है कि किसी भी जीव की जैविक घड़ी उसके लाखों सालों के इवोल्यूशन और एडाप्टेशन से बनती है। ऐसे में अब सवाल उठता है कि क्या ये चीते भारत के मौसम के हिसाब से इतनी जल्दी अनुकूलित हो पाएंगे। जो काम सैकड़ों-हजारों पीढ़ियों में हुआ करता है, वो काम क्या सिर्फ दो-तीन पीढ़ी में हो पाएगा। शायद यही वजह है कि कुछ विशेषज्ञों ने अफ्रीका से और चीते लाए जाने पर रोक लगाने की मांग की है। चीता एक खतरे में पड़ी प्रजाति है। पहले से ही उसके अस्तित्व पर संकट है। ऐसे में भारत में होने वाले चीते की यह मौतें किसी बहुत बुरी खबर से कम नहीं है। लेकिन, इस परियोजना पर शुरू से ही विशेषज्ञ यह कहकर सवाल उठाते रहे हैं कि हमारे देश में पहले जो चीते पाए जाते थे वे एशियाटिक चीते थे। जो कि हमारे यहां की जलवायु के हिसाब से अनुकूलित थे। लेकिन, हम जो चीते लाए हैं वे अफ्रीकी चीते हैं। जो अफ्रीका की जलवायु के हिसाब से अनुकूलित हैं। अब आगे देखिए, क्या होता है। हालांकि, चीतों के लिए भी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए भी किसी बहुत अच्छी खबर की उम्मीद अब कम ही है।– कबीर संजय
लेखक पर्यावरण और प्राणीविद् हैं।
03/08/2023



