एक थी ललता बाई…..जो केस लड़ते-लड़ते अपनी सुध-बुध खो बैठी थी
एक दिन पहले चल बसी बुजुर्ग ललता बाई, पुरानी कलेक्टोरेट को बना लिया था बसेरा, मरने के बाद सामान के साथ मिले सैकड़ों कागज, दर्जनों चाबियां और चंद हजार रुपए

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सागर। सही नाम ललिता बाई(67)पति राजाराम है। लेकिन कलेक्टोरेट में घूमती-फिरती इन बुजुर्ग को अधिकांश लोग ललता बाई ही संबोधित करते थे। रविवार को उनका निधन हो गया। पुराने कलेक्टोरेट में बसेरा बनाने वाली यह बुजुर्ग कुछ दिन पहले ही मछरयाई स्थित अपने घर पहुंच गईं थी। शायद परिजन के बीच उनकी मौत लिखी थी वरना तो वह बीते 5 साल से कलेक्टोरेट परिसर के एक टीन शेड में ही अपना डेरा बनाए थी। खैर…. जिन लोगों का बीते कुछ सालों में पुराने कलेक्टोरेट आना जाना होता रहा है वे ललताबाई को जरूर पहचान जाएंगे। शायद उन्हें इन डुक्को के बारे में कोई बात भी याद आ जाए। जो उन्हें नहीं चीन्ह पाए उनके लिए ललता बाई की ये दारुण कहानी है। जो आज से करीब 25 साल पहले शुरु हुई।
पुराने कलेक्टोरेट पर चाय-पान की दुकान चलाने वाले मुन्ना तिवारी के अनुसार ललताबाई मूलत: खुरई की रहने वाली थीं। उनका ब्याह सागर में हुआ। मायके में पिता के नाम से कुछेक एकड़ जमीन थी। जो उनके हिस्से में आई लेकिन 20- 25 साल पहले कुछ करीबी रिश्तेदारों ने उस पर कब्जा कर लिया। इसके बाद ललताबाई का राजस्व कोर्ट में आवाजाही का सिलसिला जो शुरु हुआ तो मरते दम तक चला।
हमेशा चाबी मांगती रहती थीं, सामन में दर्जनों चाबियां मिलीं
ललता बाई को खुरई तहसीलदार कोर्ट से राहत नहीं मिली। केस सागर कलेक्टोरेट ट्रांसफर हो गया। इसके बाद ललताबाई ने स्थानीय कलेक्टर कार्यालय में आना-जाना शुरु कर दिया। बढ़ती उम्र और कभी केस फाइल गुम होने तो कभी वकील द्वारा प्रकरण में हाजिर नहीं होने पर वे सुध-बुध खोने लगीं। हालात ये हो गए कि कोरोना के पहले तक वह मछरयाई से रोजाना पैदल कलेक्टोरेट आती थी लेकिन कोरोना के दौरान वे एक दफा जो पुराने कलेक्टोरेट परिसर में फंसीं तो फिर वह यहीं की होकर रह गईं। परिवार वाले लेने भी आए लेकिन कलेक्टोरेट में ही रहने की जिद्द पकड़ ली। इधर उनकी यहां कोई पेशी या सुनवाई भी नहीं होती थी। इसके बाद भी वे कभी तहसीलदार तो कभी एसडीएम तो कभी कमिश्नर कोर्ट केवल यही पूछने पहुंच जाती थीं कि मेरे केस का क्या हुआ ?
केस फाइल अगर नहीं मिल रही तो मुझे इस कलेक्टर ऑफिस (वर्तमान एसडीएम ऑफिस) की चाबी या सामने बने जनपद कार्यालय की चाबी दे दो और तुम लोग कहीं और चले जाओ। लोग धीरे-धीरे उनकी इस मांग को हलके-फुल्के अंदाज में लेने लगे। नतीजतन जब भी वह ये मांग रखती तो कर्मचारी- अधिकारी अपने गुच्छे में लगी अनुपयोगी चाबी उन्हें सौंप देते।
केस का ब्योरा भूल गई थीं, कागजों पर सील लगवाने लगी थीं
ललताबाई की मौत के बारे में जानने के बाद एक रिटायर्ड तहसीलदार ने बताया कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। वह खुरई में किसी जमीन-जायदाद के बारे में बात तो करती थीं लेकिन सही जानकारी या केस नंबर नहीं बता पातीं थीं। इसलिए उनकी मदद कर पाना संभव नहीं था। इसके बावजूद उन्हें मानसिक सांत्वना देने के लिए कुछेक पत्र भी चलाए गए। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। ललताबाई ने जरूर इसे गंभीरता से ले लिया और वह अक्सर कोई भी कागज लेकर आतीं और उस पर रिसीविंग मांगने लगतीं। दो-एक कलेक्टर तो उनकी इस आदत को भली-भांति जान गए थे। इसलिए वह जब उनके सामने आतीं तो वह खुद ही ललता बाई से कागज लेकर उन पर रिसीविंग दे देते थे।
काली कमाई के बारे में चिट्ठियां लिखकर ललता बाई से भिजवा देते थे
ललता बाई स्वभाव से एक चिड़चिड़ी लेकिन सहृदय महिला थीं। किसी भी परेशान हाल व्यक्ति या महिला को अपनी समझ के अनुसार शिकायत या आवेदन करने के लिए सलाह देती रहती थीं। उनके चिड़चिड़े स्वभाव के कारण चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से लेकर तहसीलदार तक उनसे हास-परिहास करते थे। चर्चाओं के अनुसार कुछ शरारती कर्मचारी एक-दूसरे की काली कमाई को लेकर चिट्ठियां लिखकर ललता बाई को थमा देते और उनसे कह देते थे कि यह कलेक्टर या एसडीएम को दे आओ। जिसके बाद संबंधित कर्मचारी की हालत देखते बनती थी। मुन्ना तिवारी का कहना है कि ललता बाई के दाह संस्कार के बाद उनकी बहु व एक बहन यहां आई थीं। उन्हें ललता बाई के सामान में करीब 5- 6 हजार रु. मिले थे।
जो स्थानीय कर्मचारी-अधिकारी व वकील उन्हें सहज भाव में देते रहते थे। सैकड़ों की संख्या में अलग-अलग अधिकारी-कर्मचारी के हस्ताक्षरयुक्त कागज मिले। जिन्हें वे छोड़कर चलीं गई।
12/05/2025



