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जैन दंपती के तलाक के केस की खारिजी बनी चर्चा का विषय

आदिवासियों को भी हिंदू मैरिज एक्ट के तहत तलाक प्राप्त करने की नहीं है पात्रता

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सागर। इंदौर के एक फेमिली कोर्ट ने जैन दंपती के तलाक का मामला खारिज कर दिया। कोर्ट के इस दो दिन पुराने फैसले की जैन व गैर- जैन समुदाय में बड़ी चर्चा है। दरअसल कोर्ट ने ये निर्णय इस आधार पर पारित किया कि जैन एक अलग धर्म है। जिसकी अपनी मान्यताएं व धर्म विधियां हैं।  फेमिली कोर्ट का यह फैसला आदिवासी समुदाय को लेकर करीब 2 साल पहले बिलासपुर हाईकोर्ट छग के एक आदेश को प्रतिबिम्बित करता दिख रहा है। बहरहाल इंदौर के फेमिली कोर्ट के प्रथम अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश धीरेंद्र सिंह ने अपने फैसले में ये भी लिखा है कि जैन हिंदू धर्म की मूलभूत वैदिक मान्यताओं को अस्वीकार कर खुद को बहुसंख्यक हिंदू समुदाय से अलग कर अल्पसंख्यक के रूप में स्थापित कर चुके हैं। इसलिए जैन समाज के अनुयायियों को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत अनुतोष प्राप्त करने का कोई अधिकार शेष नहीं रहा है। जैन धर्म का कोई भी अनुयायी अपने जैन धर्म के हजारों वर्ष पुरानी सुस्थापित धार्मिक व सामाजिक परंपराओं को व्यक्त करते हुए कुटुंब न्यायालय अधिनियम की धारा 7 के तहत अपने किसी वैवाहिक विवाद के निराकरण के लिए कुटुंब न्यायालय के समक्ष परिवाद प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र है।

 इंदौर के एक दंपती ने तलाक के लिए फैमिली कोर्ट में अर्जी दायर की थी। बहस के दौरान कोर्ट में वकीलों ने कहा कि वैवाहिक विवादों के निपटारे के लिए जैन समाज का अलग कोई कानून नहीं है। हिंदू मैरिज एक्ट के तहत ही इनका निराकरण हो रहा है। हिंदू मैरिज एक्ट में मुस्लिमों को छोड़ हिंदू, सिख आदि को शामिल किया गया है। कोर्ट ने फैसले में पं. जवाहरलाल नेहरू की किताब भारत एक खोज का भी उल्लेख करते हुए लिखा कि जैन निश्चित रूप से हिंदू धर्म या वैदिक धर्म नहीं है और कोई भी जैन आस्था से हिंदू नहीं है।

दूसरे धर्म की विधियों का पालन कराना संवैधानिक अधिकार का हनन

फैसले में कोर्ट ने लिखा कि 1947 में ही जैन समाज ने संविधान सभा के समक्ष समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की थी। यह मांग लगातार बनी हुई थी। इस वजह से ही 2014 में केंद्र सरकार ने उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देते हुए अलग मान्यता दी। उन्हें अपनी धार्मिक परंपराओं के पालन का संवैधानिक हक है। विपरीत विचारधारा वाले धर्म की विधियों को पालन करने के लिए प्रेरित करना धार्मिक स्वतंत्रता का हनन होगा।इसी तरह आर्य समाज एजुकेशन ट्रस्ट से जुड़े 1976 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने लिखा कि न सिर्फ संविधान बल्कि हिंदू संहिता ने भी जैन धर्म को अलग मान्यता दी है। जैन धर्म वेदों व बुनियादी वैदिक मान्यताओं का विरोध करता है। जैन धर्म के किसी अनुयायी को उनके धर्म से विपरीत मान्यता वाले धर्म से जुड़ी व्यक्तिगत विधि का लाभ देना उचित नहीं लगता।

जब विवाह विधि हिंदुओं समान नहीं, फिर तलाक क्यों हो ?

वकीलों ने तर्क दिया कि जैन अनुयायी के विवाह में सप्तपदी की हिंदू परंपरा का पालन किया जाता है। इस पर कोर्ट ने 10वीं सदी में आचार्य श्री वर्धमान सूरीश्वर द्वारा लिखित ग्रंथ आचार्य दिनकर ग्रंथ का उल्लेख करते हुए कहा कि उक्त पुस्तक में जैन विवाह के लिए जिस विधि का उल्लेख किया गया है, वह हिंदू विवाह विधि से अलग है। इस आधार पर भी एक्ट के प्रावधान लागू नहीं होते।

आदिवासियों के तलाक में भी हिंदु मैरिज लॉ लागू नहीं

कोरबा जिले के एक आदिवासी दंपती ने आपसी मतभेद के कारण परिवार न्यायालय में आवेदन पेश कर तलाक की अनुमति मांगी थी। आवेदन में विवाह विच्छेद के लिए दोनों के बीच आपसी सहमति का हवाला भी दिया था। मामले की सुनवाई के बाद परिवार न्यायालय ने दंपती की याचिका को खारिज कर दिया। परिवार न्यायालय से मामला खारिज होने के बाद दंपती ने हाई कोर्ट बिलासपुर (छग) में याचिका दायर कर तलाक की मांग की। मामले की सुनवाई जस्टिस गौतम भादुड़ी व जस्टिस दीपक तिवारी की डिवीजन बेंच में हुई थी। जस्टिस भादुड़ी ने याचिकाकर्ता के अधिवक्ता से पूछा कि कौन से नियम व प्रविधान के तहत विवाह विच्छेद की अनुमति दी जाएगी। कोर्ट ने यह भी बताया कि केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर आदिवासियों के विवाह विच्छेद सहित जरूरी व्यवस्थाओं को हिंदू विवाह अधिनियम व कानून से अलग कर दिया है। जानकारी देने के साथ ही कोर्ट ने याचिकाकर्ता के अधिवक्ता से पूछा कि आदिवासी समाज में विवाह और तलाक की क्या व्यवस्था है। नियम व कानून का अध्ययन करें। इस तरह की व्यवस्था हो तो इसकी जानकारी दें। डिवीजन बेंच ने यह भी पूछा कि आदिवासी दंपती को कौन से अधिनियम व नियमों के तहत विवाह विच्छेद की अनुमति दी जा सकती है।

11/02/2025

 

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