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गिद्धों के लिए जानलेवा दो और दवाएं प्रतिबंधित, 17 से होगी गणना

मृत मवेशियों के मांस में प्रतिबंधित दवाओं के अंश के कारण गिद्धों की  24-48 घंटे में हो जाती थी मौत

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सागर। वीरांगना दुर्गावती टाइगर रिजर्व और उत्तर व दक्षिण वन मंडल में 17 फरवरी से गिद्धों की तीन दिवसीय शीतकालीन गणना होगी। पिछले साल हुई गणना में रिजर्व समेत अन्य एरिया में प्रवासी गिद्ध हिमालयन ग्रिफान, यूरेशियन ग्रिफान और सिनेरियस समेत 7 प्रजाति के एक हजार से अधिक गिद्ध मिले थे। इनमें से  500 से अधिक गिद्ध अकेले टाइगर रिजर्व में देखे गए थे। रिजर्व के डिप्टी डायरेक्ट डॉ. ए. अंसारी के अनुसार इस गणना के बाद प्रवासी गिद्ध चले जाते हैं, इसलिए एक गिनती का एक और शेड्यूल अप्रैल में होगा। जिसके बाद सागर रीजन में गिद्धों की वास्तविक संख्या सामने आएगी। इस बीच एक अच्छी खबर ये आई है कि केंद्र सरकार ने गिद्धों के लिए जानलेवा साबित होने वाली दो और दवाएं केटोप्रोफिन व निमेसुलाइड पर के निर्माण पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया है। मवेशियों को बुखार, सूजन और दर्द निवारक के लिए दी जाने वाली यह दवाएं गिद्धों के लिए जानलेवा साबित हो रही थीं। इसके पूर्व केंद्र सरकार डायक्लोफिनेक और एसीक्लोफिनेक नाम की दवाओं पर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगा चुकी है। बता दें कि 25 वर्ष पूर्व वर्ष 2000 के आसपास देश में गिद्धों की 99 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी थी। यह सब मृत मवेशियों में इन दवाओं की मौजूदगी के कारण हुआ। उत्तर प्रदेश के बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज्जतनगर (आईवीआरआई) के शोध के बाद भारत सरकार ने गिद्धों की मौत का आंकड़ा बढ़ाने वाली पशुओं की इन दर्द निवारक दवाओं पर बैन लगाया गया है। जीव विज्ञानियों का दावा है इस एक निर्णय से गिद्धों की मृत्युदर में 20 फीसदी से ज्यादा कमी आएगी। इसके साथ ही सालाना होने वाली इंसानों की मौत में भी 4 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है।

गिद्धों की मौत से जुड़ा है मानव की मृत्यु दर का आंकड़ा !

सुनने पढ़ने में यह अजीब लग सकता है कि गिद्धों की मौत और मानव मृत्यु दर में कोई संबंध है। लेकिन यह सच है। कुछ साल पहलेअमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च के मुताबिक गिद्धों की संख्या कम होने से भारत में पांच लाख लोगों की मौत हो गई। दरअसल गिद्धों के पेट में बहुत ज़्यादा संक्षारक अल होता है, जो उन्हें सड़ते हुए जानवरों के शव को पचाने में मदद करता है। जबकि इस बचे हुए भोजन अक्सर एंथ्रेक्स, बोटुलिनम टॉक्सिन और रेबीज से संक्रमित होते हैं, जो अन्य जानवरों को मार सकते हैं। इसलिए, जब गिद्ध शवों को खाते हैं, तो वे बीमारियों को नियंत्रित रखते हैं।डॉ. अभिजीत पावड़े, प्रधान वैज्ञानिक एवं वन्य प्राणी विभाग के प्रभारी, आईवीआरआई बरेली ने बताया कि एक शोध में उन भारतीय जिलों में मानव मृत्युदर की तुलना की, जो कभी गिद्धों से भरे हुए थे। सूजनरोधी (एंटी इंलामेट्री) दवाओं की बिक्री बढ़ने और गिद्धों की आबादी कम होने के बाद उन जिलों में मानव मृत्यु दर में 4 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई। रिसर्च में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2000 से 2005 के बीच गिद्धों की कमी के कारण हर साल लगभग एक लाख अतिरिक्त मानव मौतें हुईं। जिसकी मुख्य वजह वे मवेशियों के सड़े मांस में पाए जाने वाले वे वायरस हो सकते हैं। जिनका खात्मा गिद्धों द्वारा मांस भक्षण करके कर दिया जाता था।

मवेशियों के लिए दो नई दवाएं सुझाई गईं

रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर डॉ. अंसारी के अनुसार मवेशियों के उपचार से केटोप्रोफिन व निमेसुलाइड हटाए जाने के बाद पशु चिकित्सा विभाग को दो नई दवाएं सुझाई गईं है। जिनके नाम मिलाक्सी केम और मेग्लुमाइज हैं। यह दवाएं मवेशियों के बुखार, चोट, सूजन आदि के उपचार में कारगर हैं। हालांकि इनमें से एक दवा मेग्लुमाइज पूर्व से घोड़ों के उपचार में उपयोग की जाती थी। लेकिन कीमत अधिक होने के कारण पशुपालक निमेसुलाइड जैसी दवाओं का उपयोग करते थे। बीते वर्षों में सरकार ने मेग्लुमाइज फॉर्मूला की दवाएं सस्ती की हैं। इसलिए पशुपालकों को इन्हें खरीदने में समस्या नहीं आएगी।

05/02/2025

 

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