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लाखा बंजारा की बाँधी झील से जुड़ी कुछ किंवदंतियों को भी इसके हरे पानी के साथ बह जाना चाहिए। जैसे कि यह किंवदंती कि लाखा बंजारा ने अपने बेटे और बहू का बलिदान किया था। यह कहानी बीते दो सौ साल पहले भी प्रचलित थी। 1833 में कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा वृत्तांत में इस कहानी को कलमबद्ध किया है। जनश्रुति यह थी कि लाखा बंजारा ने इस तालाब को खुदवाया लेकिन इसमें पानी नहीं निकला। तब उसे स्वप्न में किसी दैवीयशक्ति का आदेश हुआ कि अपने पुत्र और पुत्रवधु की बलि देना होगी। तब सोने के झूले में बैठाकर बेटे बहू को लाखा ने तालाब के बीचोंबीच रखा। भीषण जलधारा फूट पड़ी जिसमें स्वर्णझूले के साथ दोनों डूब गये।
 यह कहानी बचपन में ही सागर शहर के बाशिंदों को सुना दी जाती है। बच्चे कहानियां सुनकर मन में उसका पिक्चराइजेशन करते हैं और ऐसे विषय उन्हें कल्पनाशील बना देते हैं। सुनकर मुझे भी यही सब हुआ था। किशोरावस्था में नाव से तालाब घूमते हुए मल्लाह से एक ही सवाल किया था कि क्या सचमुच ऐसा हुआ था। मल्लाह का जबाब मुझे आज तक याद है। उसने कहा था कि यह सही बात है। गनेशघाट पर उनकी पुतरियां भी बनी है। जिन पुतरियों की बात वह कर रहा था उन्हें दिखाने के लिए ले जाने को तैयार था। एक खयाल तो यह आता था कि इतना कीमती सोने का झूला अब भी तालाब में होगा। शक भी होता था कि बैलगाड़ियों पर चलने वाले बंजारों के पास इतना बड़ा सोने का झूला बनाने की हैसियत ही नहीं होती होगी। मन में यह भी आता था कि काफिले के थोड़े से जानवरों को पानी के लिए इतने बड़े तालाब की क्या जरूरत रही होगी?
आज जब लक्खीशाह बंजारे के बारे में बहुत कुछ जानता हूँ, उनके बहू बेटे की वे कथित ‘पुतरियां’ अपनी आंखों से देख चुका हूं तो कहानी के सारे दृश्य और आयाम बदल चुके हैं। गणेश घाट पर मराठों के मंदिर के प्रांगण में बनी कथित  ‘पुतरियां’  सतीस्तंभ पर बने हाथ में हाथ लिए पतिपत्नी की छवि निकली। 1760 से ही सागर के मराठा शासन काल में सतीप्रथा थी। यह मंदिर मराठा शासक गोविंदपंत (खैर) बुंदेले के पुत्र बालाजी गोविंद ने बनवाया था इसका अभिलेख मंदिर में लगा हुआ है। गोविंद पंत और उनके वंशजों की स्त्रियां सती हुईं थीं यह उल्लेख मराठा हिस्ट्री में है। इस सतीस्तंभ को लाखा के बहू बेटा का स्मारक मानने की किंवदंती मराठा शासन खत्म होने के बाद तब शुरू हुई होगी जब गणेश मंदिर इलाके में आम जनता को जाने की छूट मिली होगी। सन् 1820 तक गणेश मंदिर वाला इलाका शासक परिवारों के निवास का वीआईपी इलाका था जिसमें सिर्फ आला दर्जे के मराठा अफसर ही जा पाते होंगे। अंग्रेजी शासन आने पर दीगर लोगों ने यह स्मारक देखे और सही जानकारी के अभाव में लाखा बंजारे के परिवार की पुरानी कहानी से इसे जोड़ लिया होगा।

ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल करें तो कर्नल स्लीमन ही उल्लेख करते हैं कि सागर और इसके आसपास मानव बलि दिए जाने की प्रथा थी। इस पर रोक लगाने की कोशिश में परवर्ती मराठा शासकों के खिलाफ आमजनता में वातावरण बन गया था जिस कारण  सख्ती नहीं की जा सकती थी। साल भर में कुछ प्रकरण बलि के हो ही जाते थे। …तो जनमानस ने तालाब के लिए बलि की कहानी पर आसानी से यकीन कर लिया होगा।
लाखा बंजारा उर्फ लक्खीशाह बंजारा के बारे में जो तथ्य अब निकल कर आ रहे हैं उनकी पड़ताल करने से यह तस्दीक होती है कि वह इतना धनाढ्य था कि सोने का झूला चढ़ाना तो उसके लिए मामूली बात रही होगी। लेकिन यदि सागर के तालाब के लिए उनके परिजनों की बलि का घटनाक्रम हुआ होता तो उसका ब्यौरा अन्य ब्यौरों की तरह इतिहास में मिलता। संभव है कि एक स्वर्ण झूला प्रतीकात्मक रूप से अपने परिजनों के प्रतिरूप बना कर झील में डाला गया हो। तालाब में पानी नहीं निकलने का तर्क भी पूरी तरह सही नहीं लगता क्योंकि यह आसपास के पहाड़ों पर बरसे पानी को  बहा ले जाने वाले नाले या नदी के उद्गम को रोक कर ही बनाया गया है। किले घाट पर सबसे ज्यादा गहराई है और उसका पानी स्वतः पूरे जाड़े के मौसम तक झरना परकोटा स्थित दनादन मंदिर प्रांगण जिसे नथनसिंह की बगिया भी कहा गया है, से आज भी  निकलता है और नाली में बह जाता है। सन 1660 में किला बनने के बाद इसी झरने के प्रवाह में म्यूनिसिपल स्कूल के भीतर वाले और फंन्नूसा कुंए, कटरा मस्जिद के चारों कोनों पर स्थित चार कुंए, कटरा पड़ाव (पद्माकर स्कूल ), गुजराती बाजार की बख्शी खाना सराय बनाए गये। पड़ाव और सराय शब्दों से ही ध्वनित होता है कि ये इलाके बाहर से आकर रूकने वाले काफिलों के लिए बने थे। इन्हीं मुसाफिर खानों से पोषित होने वाला तवायफों का इलाका भी इसी रास्ते पर बस गया था जिसे आज शहर के सबसे मंहगे इलाके गुजराती बाजार के रूप में हम जानते हैं। घूरे के भी दिन फिरते हैं की तर्ज पर जो इलाका सागर शहर के बसने से लेकर मराठा काल 1820 तक शहर का बदनाम छोर था वह आज हृदय स्थल हो गया। बिल्कुल ‘मंडी’ फिल्म की तरह (यदि आपने देखी हो तो)।

लाखा बंजारा को उस दौर में क्या रुतबा हासिल था इसका प्रमाण इससे मिलता है कि उस दौर के मशहूर शायर नजीर अकबराबादी ने 1760 के आसपास लाखा बंजारा पर लिखी ‘बन्जरानामा’ नाम से  एक लंबी नज्म ” जब लाद चलेगा बंजारा ” लिख कर उन्हें दुनियादारी का सबसे बड़ा किरदार बना डाला। शायर नजीर चाहते तो किसी पौराणिक, एतिहासिक या वर्तमान  शासक पर ऐसी नज्म लिखते लेकिन लक्खीशाह का काम किसी एक राजे महाराजे बादशाह से कहीं बड़ा और पेचीदा था। वह जो करता था बस वही कर सकता था, उसका कोई विकल्प नहीं था। नजीर अकबराबादी ने लक्खीशाह बंजारा के काफिलों को अपने बचपने से आते जाते देखा था,बारीकी से उसके कामकाज पर गौर किया था। बावजूद इसके कि नजीर अकबराबादी के रचनाकाल में लक्खीशाह को फौत हुए पांच दशक हो चुके थे। उसके पोते व्यवसाय संभालते थे लेकिन पूरा कारोबार लक्खीशाह के नाम से ही चलता था।
लक्खीशाह के काफिले के बारे में नजीर इस अंतरे को लिखते हुए लक्खीशाह से बड़ा सिर्फ ऊपर बैठी शक्ति यानि खुदा को ही मानते हैं-
” गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है,
    ऐ गाफिल तुझसे भी चढ़ता एक बहुत बड़ा व्यापारी है
क्या शक्कर मिश्री कंद गरी क्या सांभर मीठा खारी है,
   क्या दाख, मुनक्का सोंठ मिरच क्या केसर लौंग सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जाऐगा जब लाद चलेगा बंजारा। 
 

नजीर अकबराबादी को वह एक खुदा की बनाई दुनियावी शै के मानिंद लगता था। तभी उन्होंने लक्खीशाह को इस फानी (नश्वर) दुनिया का दार्शनिक बना डाला। यानि अपने जीवनकाल में ही लक्खीशाह किंवदंती बन गया था। शायद उनका वैसा ही उल्लेख उस वक्त के समाज में होता होगा जैसा कि आजाद भारत में टाटा, बिड़ला या अंबानी का होता है। हालांकि लक्खीशाह के पेशे में धन के साथ साथ साहस, वीरता और उदारता भी अनिवार्य घटक रही होगी। इनके बिना वह सफल नहीं हो सकता था।  उसका विवरण इस अंतरे से पता लगता है-
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां मत देस विदेस फिरे मारा
     कज्जाक अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नक्कारा,
क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गोने पल्ला भारी है
      क्या गेंहूँ चावल मोठ मटर क्या आग धुंआ और अंगारा,
सब ठाठ पड़ा रह जाऐगा जब लाद चलेगा बंजारा।
(हिर्सो हवस -लालच,कज्जाक-लुटेरे, अजल – मौत,शुतर- ऊंट)
 
इस तरह के दूसरे अंतरों में इस शायर नज लक्खीशाह के काफिलों के साथ उसके व्यापार, निर्माण कार्यों , सामने आने वाले खतरों का भी जिक्र किया है। निर्माण कार्यों में किले, गढ़ियों , ताल तलैयों का स्पष्ट जिक्र है।
नजीर अकबराबादी खुद भी दिल्ली के एक धनाढ्य परिवार में पैदा हुए थे। नजीर सन 1735 में जन्मे और सन 1830 में फौत हुए।  नजीर ने अपनी युवावस्था के बाद का जीवन आगरा में बिताया जहाँ से होकर लक्खीशाह का काफिला गुजरता था। उन्होंने जो देखा उसी को प्रतीक स्वरूप इस्तेमाल किया। अपने देखे, सुने, जाने हुए को ही मिसाल बनाकर दार्शनिक व्याख्या कज साथ पेश किया।
तो वे जो लाखाबंजारा को महज एक किंवदंती या उपाधि मानते हैं ,वे जान लें कि वह एक सचमुच का एतिहासिक किरदार था। आज खत्म होते लौहगढ़िया समाज उसके काफिलों की अंतिम स्मृतियां हैं। अंग्रेजों की बनाई सड़कों, बग्घियों, रेलों, मोटरगाड़ियों ने बंजारों की परिवहन व्यवस्था को नष्ट कर दिया है। लौहगढ़िया समुदाय अब तक इसलिए अस्तित्व बनाए रहे क्योंकि फसल चक्र के बीच हर साल कृषि उपकरण जैसी जरूरी चीजें गांव -गांव पहुंच कर देने वाले इंतजाम आज भी पुराने ही हैं। गांव तक पहुंच रही मोटरसाइकलों और तेज गति के परिवहन साधन ज्यों ज्योऔ गांवों में व्यापत होते जाऐंगे त्यों त्यों लौहगढ़िया बंजारे भी लुप्त होकर दूसरे व्यवसाय अपनाने को मजबूर होंगे। तो हम लौहगढ़ियों के रूप में लाखा के अंतिम चिंह देख पा रहे हैं। (यह भाग-3 था समापन किश्त शेष)

डॉ रजनीश जैन
सागर

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