बुंदेलखंड के बाघ तो कब के लुप्त हो चुके

भाग-1
सागर जिले के नौरादेही वन्यप्राणी अभ्यारण्य में इन दिनों पन्ना और बांधवगढ़ से बाघ बाघिन शिफ्ट किए जाने की प्रक्रिया चल रही है। इसके मद्देनजर हमें जानना चाहिए कि बुंदेलखंड के स्थानीय बाघों का महत्वपूर्ण जीनपूल खत्म हो चुका है। यहां अब जितने भी बाघ हैं उन्हें बुंदेलखंड के बाहर के जंगलों से लाकर इनका कुनबा बढ़ाया गया है। पढ़िए बुंदेलखंड के बाघों की गौरव और संहार गाथा।
बुंदेलखंड में वन्यप्राणियों के समृद्ध इतिहास का लेखा जोखा वनविभाग के पास है क्या? यहां की धरती से लुप्त हो चुके वन्यप्राणियों की पृथक हिस्ट्री के लिए बिखरे स्रोतों को तलाशिए। गजेटियरों से आपको पता लगेगा कि सागर जिले में आखिरी एशियन लाइन यानि सिंह जो आजकल गुजरात के गिर में शेष हैं, 1861 में मारा गया था। इसके बाद सिंह होने की खबर यहां कभी नहीं मिली। कर्नल स्लीमन के और दूसरे अंग्रेज अफसरों के लिखित दस्तावेज हैं कि 1845 के आसपास सागर जिले से 74 जंगली हाथियों को सरकार ने भारी काम करवाने के लिए पकड़वाया था। कर्नल स्लीमन के यात्रावृतांत के मुताबिक 1834 में लार्ड विलियम वेंटिंग का स्वागत शाहगढ़ के राजा ने किया तब उनके किले के प्रांगण में नर्तकियों का भव्य नृत्य हुआ। इस नृत्य समारोह के दौरान शाहगढ़ के राजा का एक सेवक चीते को बांध कर खड़ा हुआ था जो बहुत दुबला लेकिन आक्रामक नजर आ रहा था।



बुंदेलखंड में रायल बंगाल टाइगर यानि बाघ और एशियाटिक लाइन यानि सिंह दोनों के लिए शेर ही कहा जाता है। चीता भारत से 1940 में ही लुप्त होकर अब सिर्फ आफ्रीका और संभवतः कम मात्रा में ईरान में पाया जाता है। लेकिन बुंदेलखंड में तेंदुए या गुलबाघ को बाघ या चीता कुछ भी कह दिया जाता है। इस लेख में जहां भी शेर शब्द कहा जाए उसका आशय बाघ से होगा। एक तथ्य यह भी है कि भारत से लेकर सुमात्रा, चीन और रूस के साइबेरिया तक पाए जाने वाले बाघ की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं जिनका अलग अलग जीन पूल है। भारत में ही विभिन्न प्रदेशों के जंगलों में पाए जाने वाले बाघों में जेनेटिक अंतर के कारण बाघों के आकार प्रकार में फर्क पाया जाता है। रीवा के जंगलों में पायी जाने वाली बाघ प्रजाति में सफेद बाघों का अस्तित्व भी जेनेटिक था। पीले बाघों के कुछ शावक सफेद पैदा होते थे। दुर्भाग्य से सफेद बाघ का जींस भी साथ लेकर जंगलों में रह रही बाघ प्रजाति का अस्तित्व नष्ट हो गया। कई दशकों से रीवा या साथ में लगे पन्ना या बांधवगढ़ के वनों से भी सफेद बाघ पाए जाने की खबर नहीं मिली।
सफेद बाघ की तरह ही सिमलीपाल के वनों में कुछ दशकों पहले काले चमड़े पर पीली धारियों यानि रिवर्स ब्रिंडल वाले बाघों का अस्तित्व सामने आया था। इसकी निशानी के रूप में वहां के जंगल विभाग के पास कुछेक खालें पर शेष हैं। सिवनी और बालाघाट के वनों में काले तेंदुओं का भी अस्तित्व रहा है तभी हम रूडयार्ड किपलिंग की जंगलबुक में मोगली के साथ काले रंग के बघीरे को देखते हैं। काले तेंदुओं का अस्तित्व महाराष्ट्र के जंगलों में अब भी है।बुंदेलखंड के जंगल वन्यप्राणियों को लेकर देश भर के राजा महाराजाओं की शिकारगाहों के रूप में बर्बादी की हद तक इस्तेमाल हुए हैं। यहां की हरेक रियासत की बैठकों में शेर तेंदुओं की भुस भरी ट्राफियां , खालें और फोटोग्राफ मिल जाएंगे लेकिन एक भी रियासत ऐसी नहीं जिसने बाघ संरक्षण में गंभीर रूचि दिखाई हो। आजादी के बाद राजनीति कर काबिज स्थानीय सामंतों ने भी बुंदेलखंड के जंगलों का देश भर के नेताओं, राजपरिवारों, फिल्म इंडस्ट्री के लोगों, आला ब्यूरोक्रेट्स के लिए शिकारगाह के रूप में ही दुरूपयोग किया। अतीत के किस्से सुनिए तो पता लगता है कि कई सामंत अपने निजी वन्यप्राणी अजायबघर बनाए हुए थे। इनमें वनों से पकड़ कर लाए गये शेर, तेंदुए, भालू आदि के शावक पाले जाते थे और यथा जरूरत भेंटों में दे दिए जाते थे। वन्यप्राणी अधिनियम आने के बाद बीते दो दशकों में हुई कुछ बड़ी कार्यवाहियों के बाद यह अवैध शौक नियंत्रण में आ सका है।




बुंदेलखंड के दमोह और सागर जिलों में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान लंबे समय तक कर्नल स्लीमन की रुचि उस समय की प्रचलित जनश्रुतियों में लगाव की हद तक थी। वे लिखते हैं कि देवरी से सागर तक के घने जंगलों में हर साल सैकड़ों लोग शेरों द्वारा मार डाले जाते हैं। ये शेर अपने हर इंसानी शिकार को खाकर और और समझदार और चालाक होते जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि वे दरअसल शेर नहीं हैं, कभी भी वेश बदलने की क्षमता पैदा कर सकने वाली आत्माएं हैं जिन्हें कोई नहीं मार सकता। स्लीमन ने 1832 में देवरी के तत्कालीन युवा मराठा शासक रामचंद्र राव और उनके दीवान द्वारा इत्मीनान से पूछताछ करके यह संस्मरण लिखा है। रामचंद्र राव के एक कर्मचारी धोबी को शेर उठा कर ले गया। वह कभी लौटा नहीं लेकिन उसकी विधवा को यकीन था कि वह शेर बन चुका है और उससे मिलने आता है। उसके बाद जितने भी लोगों को शेर खा रहे हैं उन घटनाओं को वह धोबी ही शेर बन कर अंजाम दे रहा है।
स्लीमन ने आदमी और शेर की इस रहस्यमय थ्योरी को बुंदेलखंड से लेकर बघेलखंड तक के नरभक्षी शेरों से प्रभावित इलाकों में तस्दीक किया। थोड़े हेर फेर के साथ सभी जगह इस तरह की मिलती जुलती रवायत थी। नरभक्षी शेरों की क्रूरता और चालाकी के आगे तब के निवासी बेबस थे। वे बस उनकी पूजा कर सकते थे तो जगह जगह शेरों को पूजने के लिए मंदिर थे। किसी दुर्लभ घटना में शेर को मार डालने वाला कोई बहादुर शख्स हुआ तो मरने के बाद उसका भी सिद्ध स्थान बना दिया जाता था। उनका स्थानीय चलन के हिसाब से नाम रख कर अमुक बब्बा के नाम से पूजन होता और उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे शेरों से ग्रामीणों की रक्षा करेंगे। पर अक्सर होता यही था कि जो करना है वह शेर ही करता था। अंग्रेज अफसरों ने इस अंचल में इसलिए भी अपना सम्मान बना लिया था कि वे अपनी खतरनाक बंदूकों के साथ शेरों और दूसरे खतरनाक जंगली जानवरों पर कारगर जीत हासिल कर सकते थे। विभिन्न बोर की बंदूकों में सब तरह के कारतूसों की उपलब्धता सिर्फ अंग्रेज साहब बहादुर के पास होती थी या फिर उनके करीबी रजवाड़ों के पास। इनकी कृपा से वनोपज के लिए जंगलों में जाने वाले बड़े व्यापारियों और नेटिव स्टाफ के लोगों को जब ये बंदूकें सुलभ हुईं तब स्थानीय शिकारियों की एक जमात पैदा हुई जिसे सरकार जितना ही रक्षक का रुतबा हासिल हुआ क्योंकि वो शेर, तेंदुओं, भालुओं , लकड़बग्घों और भेड़ियों को मार सकता था।


1961 के पहले तक शिकार का कोई लायसेंस नहीं होता था। अलबत्ता सटीक निशानों वाली विदेशी बंदूकें सिर्फ अंग्रेज अफसरों की कृपा से ही मिल सकती थीं सो वही लायसेंस था वही वन्यप्राणियों कै मारने की सनद थी। जब सैकड़ों लोग हर साल नरभक्षी जंगली जानवरों के हाथों जान गंवा रहे हों तब ये शिकारी भी अपने काम का पूरा महत्व और कीमत जनता से वसूलते थे। लोग शेर तेंदुओं को मारने की प्रार्थना लेकर उनकी कोठियों पर जाते थे और बमुश्किल उनकी सेवाएं मिल पाती थीं। सागर के ऐसे ही नामी शिकारियों में कुछ के पास भुस भरे शेरों तेंदुओं के पूरे म्यूजियम मौजूद हैं। आज इनकी ट्राफियां देख कर हर शेर की मौत पर आपको दुख हो सकता है लेकिन यह भी सोचिए कि सौ पचास साल पहले हर ऐसे शेर तेंदुए के मरने पर सबसे ज्यादा खुशी जनता को ही होती थी क्योंकि ताकत के पायदान पर तब भी आम इंसान की औकात शेर तेंदुओं की दया पर ही निर्भर थी।
आज भी बुंदेलखंड में नवरात्रि के दौरान शेरों का रूप बनाकर नाच होता है। आज से 30- 35 साल पहले तक प्रत्येक दुर्गापंडाल में शेर नाचने की रस्म अनिवार्य जैसी थी। शेर नाचने वाली टोलियां उपवास से रहती थीं और इसे धार्मिक संस्कार की तरह इस काम को करती थीं। इनमें से कई टोलियों के पास शेर तेंदुओं की ओरीजनल खालें हुआ करती थीं जिन्हें पहन कर नाचने वाले की देह में जैसे उस शेर की ही आत्मा उतर जाती थी जिसकी खाल वह रही होगी। नाखूनों की जगह हाथ में हिरणों के सींगों से बने हथपहरे होते थे। इन शेर नृत्यों में पश्चातवर्ती एंट्री बंदूक लिए शिकारी की भी हूई। वीर रस और ओज बरसा रही ढोलों और ड्रमों की ताल पर बेखौफ नाचते शेर पर लकड़ी की बंदूक से निशाना साध रहे काले कोट पेंट टाई वाला अंग्रेज शिकारी इस स्वांग का हिस्सा कब और क्यों बना। सोचिए तो शेरों के खात्मे में अंग्रेज बहादुर का रोल साफ समझ आ जाता है। हालांकि नवरात्र में नाचता शेर शिकारी की बंदूक से कभी नहीं मरता था। दृश्य यूं होता कि कुछ देर छिप कर निशाना साधने के बाद शिकारी शेर की निगाह में आ जाता और एक ही हमले में शेर शिकारी को ढेर करके खा जाने की मुद्रा बनाने लगता था। बचपन में इस दृश्य को मैं चाव से देखते हुए खुश हो जाता था। शायद इसलिए कि हम इस पीढ़ी से हैं जब शेर इंसान के लिए खतरा नहीं रहा। नोट पर बने तीन शेरों की मुद्रा ने हर भारतीय नागरिक को शेर की तरह गर्व करने का और अंग्रेज शिकारी को मार डालने का साहस दे दिया।
…एक धार्मिक वजह भी होती थी कि दुर्गाजी का वाहन शेर आखिर किसी इंसान के हाथों कैसे मर सकता है? लेकिन बीते चालीस सालों के इतिहास ने बता दिया कि इंसान ही सबसे हिंसक और प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन प्राणी है न कि शेर। यह सच बहुत देर से पता लगा कि आदमी नहीं शेर जंगल को बचाता है और समृद्ध करता है। जिस जंगल में शेर नहीं है वह स्वस्थ नहीं बीमार जंगल है जो सारे उपायों के बावजूद धीरे धीरे अनिवार्य रूप से नष्ट हो जाऐगा। यह कितना विचित्र किंतु सत्य सिद्धांत है कि सबको मार कर खा जाने की ताकत रखने वाले शेर की मौजूदगी में दूसरे वन्यप्राणी कम नहीं होते बल्कि तेजी से बढ़ते हैं। जैसे ही कोई जंगल शेर विहीन हुआ उसके दीगर प्राणी भी खत्म होने लगते हैं…कैसे !? लाखों साल के प्राकृतिक चयन के प्रयोगों में उत्पन्न जैव विविधता से भरपूर वनों का पारिस्थितिकी तंत्र इस चमत्कार को संभव बनाता है कि शेर है तो जंगल है।
इंसान चाहे तो दंभ भर ले कि वह शेरों को बचा रहा है। सच यह है कि शेरों को नहीं वह खुद को बचा रहा है। खुद को बचाने का रास्ता भी शेर को और तदनंतर पृथ्वी को बचाने से ही होकर निकलता है। जिस किसी इंसान को गुमान हो वह भ्रम छोड़ दे कि वह इस जैविक चक्र और पारिस्थितिकी तंत्र से बाहर है। हम भी कुदरत के करोड़ों में से सिर्फ एक प्राणी की हैसियत रखते हैं उससे अधिक नहीं। तो इस अर्थगणित को भी समझिए कि यदि नौरादेही अभ्यारण्य में नये सिरे से शेरों को बसाने की कवायद हमें करोड़ो रूपये की बर्बादी लगती है तो फिर आप गलत सोच रहे हैं। एक शेर जितना जंगल बचाता है उतना दस रेंजर और पांच सौ वनकर्मी मिलकर नहीं बचा पाते। वनकर्मियों की मौजूदगी से ही जंगल के नष्ट होने की प्रक्रिया तेज हुई, जबकि उसे बचाने के लिए गढ़ा गया था। पर सभी वनकर्मी ऐसे नहीं हैं। इनमें से बहुतों ने लड़ाई लड़ी, कोशिश की पर सिस्टम से हार गये। उसे सबसे बड़ा असहयोग इलाके के राजनैतिक जनप्रतिनिधियों से मिला। संवाद या नैरेटिव ही असफल रहा कि जंगल दरअसल नष्ट कैसे होता है और बचता कैसे है। तो नेताजी मिटाने मिटवाने में लगे रहे। फारेस्टर सहयोग मांगता रहा ,संसाधन मांगता रहा, कानूनी अधिकार मांगता रहा। वह लुटा, कुटा, पिटा, अपमानित हुआ और आखिरकार सिस्टम का हिस्सा बन गया। सरकारें देर से जागती हैं, अब भी उनींदी ही हैं।
- रजनीश जैन



