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बुंदेला विद्रोह के नायक मधुकरशाह की विरासत और गौरव गाथा
1842 में बुंदेला विद्रोह के नायक ,अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढाए गये मधुकरशाह के व्यक्तित्व को रेखांकित करने वाली कुछ सच्ची घटनाएं हैं। ... आज मधुकर की समाधि, विरासत और वंशज किस हाल में हैं, इसकी पड़ताल करता हुआ आलेख है यह|

अंग्रेज अफसरों, जमादारों और नेटिव इंफेंट्री के बीसियों सिपाहियों की हत्या के बाद बदला लेने आई अंग्रेजी फौज ने नारहट को आग लगा दी थी। …सारा गांव अपने परिवार और बची खुची संपत्ति लेकर भाग रहे थे। 11 मई, 1842 को नारहट का महाजन रामचंद्र सिंघई भी यही कर रहा था। अचानक मधुकरशाह के एक साथी दरयाव सिंह जो संभवतः उनके रिश्तेदार भी थे जंगल से निकल कर आए और रामचंद्र सिंघई को लूट लिया। यह घटना जब मधुकर शाह को पता चली तब उन्होंने दरयाव सिंह को बुला कर उनकी सार्वजनिक रूप से बेइज्जती की और पूछा कि अपनी ही प्रजा को लूटने से बड़ा घोर पाप और क्या हो सकता है। 



यह सच्चा वाक्या जबलपुर डिवीजन के आधिकारिक रिकार्डरूम में जमा बुंदेला करसपांडेंस की केस फाइल क्रमांक 49 में दर्ज है। यह अंग्रेज ही थे जो लगातर मधुकरशाह और उनके साथियों को हत्यारा, लुटेरा और आगजनी करने वाला सिद्ध करने की कोशिश में लगे थे। लेकिन 1842 के विद्रोहियों ने सिर्फ उन्हीं जमींदारों, जागीरदारों को लूटा जो अंग्रेज सरकार का साथ आगे बढ़ कर दे रहे थे।
दूसरा तथ्य भी उल्लेखनीय है जो सरकारी गजेटियरों में लिखा जाता रहा है। वह यह कि सागर जेल के पीछे जहां मधुकरशाह को जनता के सामने फांसी देकर शव को जलाया गया था वहां बाद में जनता ने ही एक चबूतरा बना लिया। लोग उस चबूतरे की मान्यता वैसे ही करने लगे थे जैसी लाला हरदौल के चबूतरे की है। गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोग मधुकरशाह के चबूतरे पर मनौती मांग कर ठीक हो जाऐंगे ऐसा मानते थे। यह चबूतरा अब भी वहीं है। जनवरी ,2016 में उजाड़ पड़े चबूतरे को सागर के तत्कालीन जिला एवं सत्र न्यायाधीश अनिल वर्मा ने अपने खर्चे से कुछ टाइल्स भेजे। तत्कालीन जेलर प्रियदर्शन श्रीवास्तव ने जेल के बंदियों को काम लगा कर समाधि को टाइल्स लगा कर सुंदर बना दिया। एक सूचनापटल भी लगवाया जिसमें मधुकर शाह की ब्रीफ हिस्ट्री लिखी है। जब तक ये दोनों अफसर सागर में पदस्थ रहे समाधि के चबूतरे पर दिया बत्ती होती रही। इनके जाते ही यह सिलसिला खत्म हो गया। विगत 27 जनवरी को सागर क्षत्रिय महासभा के अध्यक्ष वीनू शमशेर जंगबहादुर राणा नज नारहट से मधुकरशाह के वंशज को बुलाकर इस समाधि पर फूल चढ़ाने का कार्यक्रम किया था। लेकिन राजनैतिक दल, स्थानीय प्रशासन यहां तक कि उनके नाम पर बने मधुकरशाह वार्ड की जनता भी इस समाधि की ओर झांकते तक नहीं। समाधि के आगे जेल विभाग ने अपने आवासीय क्वाटर बना कर बाउंड्रीवाल बना ली है तब से समाधि तक जाने का रास्ता बंद हो गया। यहां तक जाने के लिए अब जेलकर्मियों के घरों से होकर, पूछ कर,अनुमति लेकर जाना होता है।

फांसी चढ़ते वक्त मधुकर 22 साल से ज्यादा के नहीं थे। उनके छोटे भाई गनेश जू सिर्जोफ 19 साल के थे जो उनके साथ ही बानपुर में बहिन के घर से पकड़ लिए गये थे। दोनों की कदकाठी कैसी होगी यह उनके वर्तमान वंशज हरेंद्रशाह या राजूराजा को देख कर समझा जा सकता है। पूरे दस्तावेजों के विश्लेषण से पता लगता है कि दोनों भाइयों को भीषण यातनाएं दी गयी थीं। पकड़े जाने के तीन दिन के भीतर मधुकर को फांसी और गनेश जू को कालापानी की सजा के आदेश दिए गये। गनेश जू को चिनारगढ़ के किले में रखा गया। यहां भी उन पर यातनाएँ जारी थीं। उनकी सेहत को देखते हुए उनके रिश्तेदार बुंदेला राजाओं ने अंग्रेज सरकार से उन्हें छोड़ देने की गुहार लगाई। ढाई तीन साल की सजा काटकर आए कमजोर गनेश जू घर में बस कुछ ही दिन जिंदा रह सके।

जिस तरह बुंदेला विद्रोह पैदा करने में कुछ नासमझ अंग्रेज अफसरों की गल्तियां थीं तो सिर्फ कर्नल स्लीमन ही ऐसा था जिसकी राजनैतिक समझ एक-एक जागीरदार परिवार की बारीक और व्यवहारिक जानकारियों से बनी थी। उसे रियासतों की भौगोलिक मैपिंग, सामाजिक वर्गीकरण, जातिगत आबादी का अध्ययन स्लीमन के पास था।
स्लीमन की रिपोर्ट के अनुसार मधुकर शाह के पिता राव विजयबहादुर और बांदरी के पास स्थित चंद्रापुर जागीर के जवाहरसिंह को अदालत में पेश करके अपमानित किए जाने का तरीका एकदम अव्यवहारिक था। विजयबहादुर से मराठों के समय का पुराना बकाया राजस्व जमा करने का दबाव डाला गया था तो जवाहरसिंह पर जब्त किए गये 17 मवेशियों को गुपचुप बेच देने का आरोप लगाया गया था। यानि जो जागीरदार कल तक खुद सजाएं देते थे आज वे सजाएं सुन और भुगत रहे थे। 

1835 के अकाल और लगातार अवर्षा से कर्ज में डूबे नारहट के राव विजयबहादुर के परिवार का इतिहास मानवीय संवेदनाओं से भरी जागीरदारी करने का था। अपने दस गावों के किसानों से प्रताड़ना देकर वसूली करने का स्वभाव उनका नहीं था। लेकिन अंग्रेजी सरकार तो 1827 से ही पुलिस चौकिएं, स्कूलें, अस्पतालें, नई सड़कें बनवाने का प्लान लेकर आई थी। हर अफसर पर अपने इन टारगेट्स को पूरा करना अनिवार्य था। तो नमक से लेकर कपास तक पर टैक्स बढ़ाऐ। इससे भी काम न चला तो जागीरदारों की लगान कई गुना बढ़ा दिए। यह तकरीबन आज की स्मार्टसिटी के प्लान जैसा ही है, जिसमें लोगों को बनते वक्त समझ नहीं आ रहा कि शहर में डाली जा रही सीवर लाइन, कचरा डिस्पोजल प्लांट और जल सप्लाई के इंतजाम सरकार कर तो रही है लेकिन बाद में इन सबके बढ़े हुए बिल नागरिकों के मत्थे ही मढ़े जाना है, भले ही संपत्ति कर के बकाए में आपका मकान ही कुर्क हो जाए।
तो नारहट का जागीरदार अंग्रेजों का बड़ा कर्जदार था। ऐसे में फागुन के महीने में बेड़नी बुलाकर राई नृत्य करवाना अंग्रेज अफसरों के नजरिए से फिजूलखर्ची थी लेकिन जागीरदारी के हिसाब से परंपरा थी। आज 2018 में भी बुंदेलखंड के गांव में सभी किसान अपने जमींदार से अपेक्षा रखते हैं कि किसानी से फुरसत के इन दिनों में वह उनके आमोद प्रमोद का इंतजाम करेगा। …इसका सुधरा हुआ रूप ही आज का बुंदेली मेला कल्चर है। इस परंपरा को न निभा पाने वाले जमींदारों को अन्य किसानों में आलोचना का पात्र बनना पड़ता है।

बेड़नी नर्तकियों के परिवारों और जमींदारों के बीच आज भी यह अलिखित समझौता रहता है कि उन्हें गांव से ले जाने,आयोजन से वापस उनके घर तक सुरक्षित छोड़ने की जिम्मेदारी जमींदार परिवार की होती है। नारहट से शुरू हुई बगावत में राई नृत्य के दौरान घटे प्रसंग को अपनी सुनवाई के दौरान रिकार्ड कराए बयान में असहनीय घटना बताते हुए कहा कि इस अपमान को सहन करने के बजाए क्षत्रिय को मृत्यु प्यारघ होती है । अंग्रेज पल्टन के जमादार की गारद आई और नाचती हुई झुकुनियां बेड़नी को उठा कर गांव की ही छोटे किलेनुमा गढ़ी में ले गयी। तस्वीर में जो हवेली दिख रही है उसके ठीक सामने के मैदान में यह घटना घटी थी 29 मार्च 1842 को। असफेर के गांवों के सभ्रांत, रईस,जमींदार और किसान इस घटना के साक्षी थे। इस घोर अपमान के बाद राव विजयबहादुर सिंह ने अपने कारिंदे को गढ़ी भेजा कि जाकर झुकुनियां बेड़नी को वापस लाए। वहां उसे गालियां देकर भगाया गया। सब्र तोड़ने पर आमादा अपने दोनों पुत्रों को समझाइश देकर राव विजयबहादुर कुछ लोगों को साथ लेकर मालथौन थाने में इस घटना की रिपोर्ट लिखाने पहुंचे। … केस फाइल में यह तथ्य नहीं मिलता कि किसी अंग्रेज अफसर ने यह ताना दिया हो , ‘…अपने घर की महिलाओं को क्यों नहीं नचाते।’ ( गोविंद नामदेव द्वारा निर्देशित थियेटर प्ले में इस संवाद को कहलवा कर इसे ही टर्निंग प्वाइंट बताते हुए खूनखराबा दिखा दिया गया है।) झुकुनियां कब रिहा की गयी इसका उल्लेख इतिहास में नहीं है लेकिन इतना तय है कि कि उसे राव विजय बहादुर सिंह को नहीं लौटाया गया था। इसका राजनैतिक और सामाजिक संदेश यह था जो जागीरदार अपने यहां आई नचनारी को सुरक्षित घर न भेज सके उसका इकबाल खत्म था।

विद्रोह त्वरित नहीं था, राई नर्तकी के अपहरण के दस दिन बाद पूरी तैयारी करके 8 अप्रैल,1842 को नारहट किले पर हमला करके कुछ सिपाहियों को मार डाला गया, जमादार को कैद कर लिया गया। इस हमले में आसपास के आठ बुंदेला जागीरदारों के दो हजार सशस्त्र हमलावर शामिल हुए। जमादार को दो दिन बाद खिमलासा पर हमले से वापस लौटकर मौत के घाट उतारा गया।
इसके बाद के महीनों में नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह जिलों तक फैल चुकी इस बगावत में लगातार एक साल से ज्यादा सशस्त्र हमलों, मुठभेड़ों का सिलसिला चला। अंग्रेजों ने दमन और अत्याचार से हटकर बुंदेलों को मनाने, क्षमा करने का अभियान चलाया। वीरान और जल चुके नारहट गांव की जनता अंग्रेजों के लाख मनाने पर भी लौटने को तैयार नहीं थी। कर्नल स्लीमन की सलाह पर जब राव विजय बहादुरसिंह को जेल से रिहा कर गांव की हवेली पहुंचाया गया तब जाकर गांव वाले लौटने को तैयार हुए। यही नीति चंद्रापुर सहित सारे बागी जागीरदारों के लिए अपनाई गई। सिर्फ मधुकरशाह और गनेशजू को छोड़कर। उन्हें अकेला करके उनके हर कारनामे को लूट और डकैती के की तरह प्रचारित करके ईनाम बढ़ाए गये। उनके सारे रिश्तेदारों की जागीरों को संकट में डाला गया। अंग्रेज अफसरों की हत्याओं में सिर्फ मधुकरशाह और गनेशजू का ही हाथ था इसलिए उन्हें सजा देकर अंग्रेज अपने कानून और ताकत के दबदबे का संदेश देना चाहते थे। तब जाकर शाहगढ़, बानपुर सहित सभी बुंदेला जागीरदारों ने मिलकर मधुकरशाह को पकड़वाने पर सहमति बनाई। संभव है कि नारहट के दुखी राव विजय बहादुर सिंह से भी चर्चा की गयी हो। गनेश जू को फांसी की सजा न होने पर भी सहमति बनी हो।

मधुकरशाह की गिरफ्तारी बानपुर रियासत में उनकी बहिन के घर से ही हुई। यह भी संकेत मिलते हैं कि बहिन का ससुराल भी अंग्रेजों से हुए समझौते में शामिल था, यह बात और है कि शायद बहिन को जानकारी न दी गयी हो। कैप्टेन वैकमेन को मधुकरशाह की गिरफ्तारी का श्रेय दिया जाता है लेकिन यह भी तथ्य मिलते हैं कि मधुकरशाह को सोते हुए पकड़ने वाले ब्रिटिश सिपाही नहीं थे। उन्हें तो बेड़ियों में बंधे दोनों बागी सौंपे गये थे। मधुकरशाह की हालत कुछ दिन पहले हुई नीलकंठेश्वर की पहाड़ियों पर हुई मुठभेड़ में घायल होने से खराब थी। वे जंगलों में रहने लायक स्थिति में नहीं बचे थे।
मालथौन बार्डर पर अटा के जंगलों में बनी सवा दो सौ साल पुरानी सैकड़ों मिलिट्री बैरकों की कतारें देखकर आज यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मधुकरशाह बुंदेला अपने गांव से कुछ ही किमी दूर बैठी सुसज्जित अंग्रेज फौज से लड़ रहे थे। यह बैरकें 1790 के बाद कभी सिंधिया के फ्रांसीसी जनरल जान बैपटिस्टे की फौज को तैना करने बनवाई गयीं थीं और 1820 में सिंधिया ने इन बैरकों को मालथौन इलाके के साथ अंग्रेजों को सौंपकर दूसरे इलाकों से बदल लिया था।
यहां तैनात नेटिव इंफेंट्री की तीसरी रेजीमेंट के कैप्टेन चार्ल्स राल्फे ने मधुकरशाह की बागी गारद से मालथौन में 16 अप्रैल,1842 को आमने सामने का मुकाबला किया और गंभीर हालत में सागर के मिलिट्री हास्पिटल लाया गया। 19अप्रैल,1842 को कैप्टेन राल्फे की मौत हुई जिसकी कब्र सागर केंट के अशोक रोड स्थित अंग्रेजी कब्रिस्तान में आज भी देखी जा सकती है। इस पर लिखे ब्यौरे से पता चलता है कि इस कब्र को काले संगमरमरी पत्थर से फ्रेंच एंड स्काटलैंड कंपनी ने बनाया था।

मधुकर के बाद उनके परिवार के संकट कम नहीं हुए। जागीर को अंग्रेजों ने हमेशा कर्जदार बनाए रखा। उनका परिवार महाराज छत्रसाल की हृदयशाह वाली शाखा यानि शाहगढ़ राजा के रिश्तेदार राजा बहादुर सरदार सिंह जू की कटेहरा जा बसी वंश परंपरा का है। रावबखतवली, राव पहाड़सिंह,राव राजेंद्रसिंह, राव हरेंद्र शाह तक छह पीढ़ियां मधुकरशाह के बाद हुईं। छठी पीढ़ी के हरेंद्रशाह बताते हैं कि कर्ज में डूबी जागीर को राव पहाड़सिंह ( नन्ना जू) की तीसरी पत्नी राउन दुलैया ने कड़ी मेहनत और सूझबूझ के साथ कर्जे से उबारा था। राउन दुल्हैया मड़ावरा के पास देवरान ग्राम के परिवार से थीं।

नारहट आज आठ हजार की आबादी वाला गांव है। पहाड़ी की तलहटी में मधुकरशाह की हवेली आज भी बिल्कुल नहीं बदली है। हवेली के भीतर दो मंदिर हैं। एक नीचे जो कि बहुत सुंदर है। दूसरा ऊपर जो कि हवेली की छत पर है। गांव अब भी जंगलों से घिरा है। हालांकि 1842 में इस इलाके में शेरों तेंदुओं का भीषण कहर था। डा. रायबहादुर हीरालाल द्वारा दिए गये अधिकृत आंकड़े के मुताबिक सागर जिले में 1861 तक सिंह भी थे। आखिरी बब्बर शेर इसी साल मारा गया था। बाद में लुप्त होते हुए ये सिर्फ गुजरात के गिर में बचे थे। मधुकरशाह और गनेशजू ने अपने वफादार बागियों के साथ एक साल से ज्यादा इन्हीं जंगलों में गुजारा था। मधुकर शाह का गांव नारहट अब भी जीवंत और रंगों से भरपूर है। मैं तकरीबन एक साल पहले नारहट गया था। उस दिन साप्ताहिक हाट था। आदिवासी महिलाए वहां सूखी हुई चने और मैथी की खुशबूदार भाजियां , कुम्हड़े बेच रही थीं। बड़े ही सस्ती कीमत में। मप्र उप्र की सीमा पर लगे इस ग्रामीण अंचल के वनवासियों तक शहर की हवा नहीं पहुंची है। सामंतवाद की जकड़ आजादी के बाद ढीली पड़ी है पर खत्म नहीं हुई।
रजनीश जैन
सागर



