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जबलपुर की एम्पायर टॉकीज सागर की विजय, अलंकार सी तो नहीं ढही !

सागर के शाहपुर में 9 अबोध बच्चों की मौत के बाद परिवारों का "गढ़" एम्पायर सिनेमा ढहा दिया गया

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एम्पायर सिनेमा तब और आज !

जबलपुर। भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर और काया पलटते जबलपुर की गवाह एम्पायर टॉकीज मंगलवार को इतिहास के गुवार में खो गई। जिसके साथ सुनहरा अतीत जुड़ा था तो कई कड़वी यादें भी थीं। लेकिन वो शायद उतनी कसैली नहीं होंगी जितनी सागर की विजय टॉकीज, अलंकार टॉकीज या फिर जमींदोज होने की कगार पर खड़ी अप्सरा टॉकीज और मनोहर टॉकीज की हैं। यहां तो रातों -रात नहीं दिन- दहाड़े ये सपनों के महल और चौबारे ढहा दिए गए। इन बोलती इमारतों के सामने शहर किसी मूक सिनेमा का सीन सा बना रहा।  कुछ भी हो एम्पायर सिनेमा एक एम्परर यानी सम्राट की तरह जिया। जब वह आखिरी हाल यानी मिट्टी से मिलने पहुंचा तो जबलपुर से लेकर सागर और जानें कहां-कहां तक उसके मर्सिया पढ़े गए। बहरहाल… जबलपुर के वरिष्ठ समीक्षक व विश्लेषक चैतन्य भट्ट कहते हैं एम्पायर टॉकीज और प्रेमनाथ एक दूसरे के पर्याय रहे। प्रेमनाथ की आत्मा एम्पायर में बसती थी। मुंबई की चकाचौंध में व्यस्तता के बाद भी वे एम्पायर और जबलपुर के लिए समय निकाल लेते थे। ग्रेट शोमैन राजकपूर के साले होने के नाते वे उनका जबलपुर से भी रिश्ता जोड़े रखते थे, तभी तो जिस देश में गंगा बहती है जैसी क्लासिक और कालजयी फिल्मों की शूटिंग जबलपुर और धुआंधार की वादियों में करने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि उसकी व्यवस्था भी की। बकौल भट्ट एम्पायर की आत्मा तो प्रेमनाथ के साथ ही चली गई थी। उसके बचे अवशेष को लोग सहेज नहीं पाए और आज यह छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर गया। आइए सुनते हैं एम्पायर की कहानी एम्पायर की जुबानी…।

अरे! पहचाना मुझे, आपका एम्पायर, हां वही एम्पायर टॉकीज। ये जो ईंट के टुकड़े, सुरखी-चूने का ढेर और पत्थरों का मलबा देख रहे हो वही तो हमारी सच्चाई थी। किन-किन चीजों से जोडकऱ मुझे आपका एम्पायर बनाया गया था, यह तो हम भी भूल गए थे। और भूले भी क्यों नहीं, मैं तो आपके सुनहरे सपनों, रुपहली यादों और मदहोश करने वाली आवाज का जादूगर एम्पायर था। याद आया अपना जमाना, मेरी सीट पर कैसे उछल पड़ते थे या फिर डरकर दुबक जाते थे। दुल्हन वही जो पिया मन भाए का रेकॉर्ड आपने बनाया और शोहरत हमें मिली, इसी को देखकर तो आपने अपने सपनों की दुनिया गढ़ी। हमारी दुल्हन दो साल तक आपको भायी, यहीं से तो हमारा कायापलट हुआ था। पहले तो सभी हमें अंग्रेजी वाला कहते थे, कतराते तो नहीं थे पर कोसते जरूर थे। हमने समय के साथ बदलाव किया तो सभी के मन को भा गए। यह तो आपकी ही मांग थी जब हम हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ढल गए। कैसे दिन बीते और हम आपके और अधिक लाड़ले बनते गए पता नहीं चला। तन बूढ़ा हुआ तो वही हुआ जैसे हर बुजुर्ग के साथ होता है, बच्चे भी साथ छोड़ देते हैं, तभी तो आज की पीढ़ी हमारे बारे में कम और गॉशिप की कहानियों में ज्यादा जानती है। पर हमारा गॉशिप भी खराब नहीं था। मेरी यात्रा उस दौर में शुरू हुई जब जबलपुर अंग्रेजों की छावनी थी। हमें तो उन्होंने ही बसाया और संवारा है। सर्किट हाउस नंबर एक के ठीक सामने गोलाकार हाल वास्तु कला का अद्भुत नमूना जब अंग्रेज महिला “वैलिमी ” ने यह शक्ल दी तो हम भी इतराए थे। लेकिन हम उस कलुषित इतिहास का हिस्सा कभी नहीं रहे जिसमें प्रताडऩा, घृणा, शोषण और रक्तपात की काली छाया रही हो। हमें तो थियेटर के रूप में तैयार किया गया, यहीं से प्रतिभा की कोपलें फूटी। हमारे आंगन में कभी भी अत्याचार का पाठ नहीं पढ़ाया गया। हमें बैले डांस के लिए सजाया और संवारा गया। थिएटर में उन दिनों मिलिट्री के बड़े अफसर और उनकी बीवियां शाम को बैले डांस करने आया करते थे। जब भारत आजादी की अंगड़ायी ले रहा था तब की उथल-पुथल के भी हम साक्षी थे पर तब भी हमारा काम मन और आत्मा को तृप्त करने का ही था। फिर वह दिन आया जब भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर के विख्यात एक्टर प्रेमनाथ जो हम पर मोहित थे, हमें जबलपुर की शान बनाने का बीड़ा उठाया। यह हमारे और जबलपुर दोनों के सुनहरे दौर का समय था। हमें नया नाम मिला एम्पायर, कहने को तो टॉकीज थी पर सही मायने में हम तो एम्पायर थे न केवल आइजी करतार नाथ के, उनके बेटे प्रेमनाथ के बल्कि इस जबलपुर शहर के भी एम्पायर ही रहे।

सालों के अंधेरे कोने में भी हम जबलपुर और जबलपुरियन्स के अतीत के कसीदे पढ़ते रहे, हमें देखकर लोग संस्कारधानी की बुलंद तस्वीर की कल्पना भव्य खंडहर से कर लेते थे। हमको जैसा जिसने पढ़ा और जिसने जैसा देखा वैसा ही जबलपुर के बारे में जान पाया। मैं ब्रिटिश सत्ता का गवाह रहा हूं तो आजाद भारत का सुंदर सपना भी बना। मध्यप्रदेश के एकीकरण के दौर का भी साक्षी था, जबलपुर से ही तो सबकुछ बुलंद हो रहा था। जब इसी संस्कारधानी को मध्यप्रदेश की राजधानी बनाने का प्रस्ताव आया तो हम फूले नहीं समाए थे, सबकुछ तैयार हो रहा था। मां नर्मदा के भाल पर संस्कारधानी के राजधानी बनने का तिलक लगने वाला था। लेकिन 1956 के छल में हमारी आंखें भी छलछला आईं थीं। पर नियति के साथ हम जीते रहे और जबलपुर को आगे बढ़ते हुए देखते रहे जो अपने पुरुषार्थ और अपने भाग्य पर जीने वाला शहर है। मां नर्मदा के आशीर्वाद से ही इसे फलीभूत होते हुए देखा। 

मैंने ” कागज के फूल” की खुशबू पहचानी

हमारे टॉकीज के रंग रूप में ढलने की कहानी भी कम मजेदार नहीं है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि प्रेमनाथ ने हमें अपना बनाने की कसम इसलिए खाई थी कि एक बार थियेटर के भीतर जाने से उन्हें गार्ड ने रोक दिया था, कोई थप्पड़ रसीद करने की बात भी कहता है पर शायद हम अपने ही भीतर के शोर की वजह से सुन नहीं पाए इसलिए उस किस्से की तस्दीक किए बिना आगे बढ़ते हैं। प्रेमनाथ ने हमें सौंदर्य दिया और जबलपुर से लेकर देश के हर कोने में अलग पहचान और शोहरत दिलाई। उनके बेटे प्रेमकिशन और मोंटी तो हमारी गोद में खेले और बड़े हुए। हम हिन्दी के लिए रुपहले भी तो प्रेमकिशन की यादगार फिल्म दुल्हन वही जो पिया मन भाए से ही हुए। कहने को तो इस फिल्म की निर्माता भाग्यश्री वालों ने दो साल का अनुबंध किया था, लेकिन यह फिल्म से उससे आगे भी चली थी। यह आपका प्रेम ही था कि गुरु दत्त द्वारा निर्मित कालजई फिल्म “कागज के फूल” जो अपने जमाने की सुपर फ्लॉप फिल्म कही जाती थी को हमारे रुपहले पर्दे पर दो महीने तक आपने प्यार बरसाकर कागज के इस फूल को भी अमर कर दिया था। कहते हैं न कि भावनाओं की अपनी कोई भाषा नहीं होती, वह तो देखकर पढ़ ली जाती है। तभी तो अंग्रेजी और हिन्दी के साथ तमिल, तेलगू और बांग्ला की फिल्मों को भी वैसा ही प्यार मिला।

जब हम बड़े हुए एक किस्सा जो हमें बार-बार सुनने को मिला। हम पर फिदा प्रेमनाथ के जब हम हुए तो वे आराम फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, तब फिल्म निर्माता वर्मा ब्रदर्स से उन्होंने मेहनताना के बदले बदले उन्हें एक “फोटो फोन मशीन” और “आरसीबी साउंड सिस्टम” मांगा, ताकि अपने एम्पायर में सपनों के रंग भर सकें। यह मिला तो हम थियेटर से टॉकीज बन गए। 20 साल तक छोटे पर्दे पर फिल्मों का प्रदर्शन होता रहा पर 1972 में इसके छोटे पर्दे की जगह 48 गुणित 30 फीट लंबे चौड़े पर्दे के साथ सुपर स्टीरियो फोन और साउंड सिस्टम लगाया गया यहीं से हमारे मेटनी शो ने नया इतिहास रच दिया।

उक्त आकल्पन  दैनिक  समाचार पत्र “पत्रिका” के सुधी व प्रज्ञ संपादक श्री राजेंद्र गहरवार का है। शुरुआती चंद लाइनें  संपादित की गईं है।                   08/08/2024

 

 

 

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