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गर तुम न होते…संदर्भ प्रदीप कृष्णात्रे

इस संस्मरणात्मक लेख का ये शीर्षक राजेश खन्ना और रेखा की हिट फिल्म का टाइटल है, मगर ये टाइटल और इससे जुडा गाना मुझे हर वक्त प्रदीप कृष्णात्रे जी को देख कर याद आता है। ये फिल्म 1983 में आयी थी और मुझे कृष्णात्रे जी मिले इस फिल्म के आने के छह साल बाद यानिकि 1989 में। सागर विश्वविदयालय में पढने के दौरान बीएससी में लगातार तीसरी बार कैमिस्टी में सप्लीमेंटी आने के बाद यूं ही बैंक के पास टहल रहा था तो वहां पर कोई सज्जन ( ब्रजेश त्रिपाठी ) किसी दूसरे विद्यार्थी को सागर  विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की महिमा बता रहे थे।
जाने अंजाने में मैंने भी वो सब सुन लिया और जैसा कि होता है छोटे कस्बों से आये छात्रों के पास कोई सोच या दृष्टि तो होती नहीं है जो जैसा कहता है अच्छा लगता है तो हमने भी उन सज्जन की बात सुन वहीं बैंक के काउंटर पर 15 रूप्ये खर्च कर पत्रकारिता के कोर्स का प्रवेश परीक्षा फार्म खरीद लिया। अपनी सप्लीमेंटी की परीक्षा की तैयारी के साथ प्रवेश परीक्षा पर भी ध्यान देता रहा, किस्मत मेहरबान निकली यहां सप्लीमेंटी परीक्षा के साथ साथ रीवेल्यूवेशन में तो पास हुआ ही पत्रकारिता प्रवेश परीक्षा में भी पहला नंबर लगा। दूसरे पर सत्यनारायण दुबे और तीसरे पर अखिलेश अवस्थी सरीखे महारथी थे। और बस यहीं पत्रकारिता विभाग में विभागाध्यक्ष प्रदीप सर से जो संपर्क हुआ तो आज तक बना हुआ है। आज उनका जन्मदिन है तो उनको याद करने और पीछे के दिनों की बात करने की हिम्मत जुटा रहा हूं क्योंकि मुझे मालुम है ये सब पढकर उनको अच्छा नहीं लगेगा वैसे भी वो अपनी तारीफ सुनना पसंद नहीं करते और उनका पसंदीदा वाक्य यही था कि पीछे की जिन बातों को सोचने से यदि कुछ फायदा ना हो तो क्यों सोचना। मगर मुझे लगता है कि प्रदीप सर से जुडी पुरानी बातों को याद करने से लोग जानेगे कि कुछ शिक्षक ऐसे भी होते हैं जो अपने छात्रों की जिंदगी बनाने में तन मन और धन से जुट जाते हैं। मेरे पिताजी ने मुझको अफसर बनने विश्वविघालय भेजा था मगर मैंने तो पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला ले लिया था। उनके लिये मेरा ये फैसला किसी बडे वज्रपात से कम नहीं था। मगर इस आघात को कम करने के लिये प्रदीप सर मेरे घर सागर से सवा सौ किलोमीटर दूर करेली जा पहुंचे ओर मेरे पिताजी और मां को भरोसा दिलाया कि इसे ये कोर्स करने दीजिये, ये आपको निराश नहीं करेगा मगर यही प्रदीप कृप्णात्रे मेरी नजरो में तब सबसे बडे दुश्मन बन गये जब उन्होनें चलती क्लास से ही मुझे हरसूद भेज दिया। ना होस्टल जाने दिया ना किसी से बात करने दी ना हरसूद की कुछ जानकारी दी कहा बस आप जाइये जहां भी हरसूद हो जाइये और वहां होने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन के बांध विरोधी सम्मेलन की तैयारियों की बैठक में भाग लीजिये और हमारे आने की जानकारी दीजिये। मरता क्या ना करता विवि से बस स्टेंड फिर होशंगाबाद फिर हरदा और हरसूद तक पहुंचा। दो दिन लौटा तो फिर रास्ते मे सर मिल गये और विवि के रास्ते से सीधे क्लास में ले जाकर कहा कि बताइये कैसे पहुंचे हरसूद। और उस दिन मैं उस क्लास का हीरो था जो अचानक यहां से हरसूद गया और वापस आ गया मगर यकीन मानिये इससे पहले जिंदगी में मैंने करेली से जबलपुर और सागर का ही सफर किया था पर हरसूद की दौड मेरा जो हौसला बढाया है वो अब तक कम नहीं हुआ। अचानक आयी दूरदराज की खबरों पर जाने का सोचने में मुझे जरा भी वक्त नहीं लगता। हरसूद मेरी जिंदगी की पत्रकारिता का पहला पाठ था जो प्रदीप कृप्णात्रे जी ने बिना सिलेबस के ही सिखाया।
हमारे सागर के और मित्र मशहूर एक्टर कलाकार मुकेश तिवारी कहते हैं कि एक्टिंग कभी पढाई नहीं जाती मगर यदि पढाई जाती है तो उसी तरह पढाई जानी चाहिये जैसे नसीरूददीन शाह पढाते हैं। आपको बता दें कि एनएसडी यानिकि राष्ट्रीय नाटय विदयालय के आखिरी वर्ष के छात्रों को कुछ दिन नसीर अपने हिस्से की एक्टिंग पढाने सिखाने और समझाने आते हैं मगर मुकेश की यहां याद इसलिये कि मेरा भी मानना है कि पत्रकारिता कक्षाओं में पढाई नहीं जा सकती यदि पढाई जानी चाहिये तो वैसे ही जैसे प्रदीप कृप्णात्रे पढाते थे। पत्रकारिता की कक्षा में वो कब आते थे और कब जाते थे पता हीं नहीं चलता था जब हमको खाली देखें तो आ जायें कक्षा में बोर होते देखें तो फिर चाय पान के टपरों या केंटीन की तरफ ले जायें। फिर वहीं वो अपनी बातों का पिटारा खोल दें। उस जमाने में डीआरडीओ के साइंटिस्ट डा अबुल कलाम हो या सेटेलाइट के फुटप्रिंट मुझे उन टपरों की गप्पों के बीच ही समझ आये। टपरों से लौटकर फिर क्लास और जब वापस क्लास छूटे तो फिर किसी ना किसी बहाने रात में हम हास्टल के छात्रों को पत्रकारिता विभाग बुला लें कभी कुछ कटिग कराये तो कहीं बडे लेखकों के आर्टिकल पढवायें या अनुवाद करवायें। जाने अंजाने में वो ये बात हम सबको बताते थे कि विभाग मे आने का वक्त है जाने का नहीं मगर ये बात जब अखबारों में नौकरी की तब समझ में आयी कि हमारे काम में आने का वक्त है जाने का नहीं और टेलीविजन की नौकरी में तो आने और जाने दोनों का वक्त नहीं होता। कृष्णात्रे जी ने ये बात हमे कोर्स करने के दौरान ही अप्रत्यक्ष रूप से सिखा दी थी। कोर्स की किताबों को एक तरफ रख वो हमारी रूचि पूछते और उस रूचि से जुडे विषय पर पढने देते उसी पर लेख लिखवाते और अखबारों में छपने भेजते। पढाई के दौरान हीं हमारी कक्षा के छात्र जनसत्ता, नवभारत टाइम्स नईदुनिया और स्थानीय आचरण तक में छपने लगे थे।
कृप्णात्रे जी के साथ पत्रकारिता का साल कब गुजर गया पता हीं नहीं चला। पत्रकारिता की मार्कशीट में नंबर आये थे पचास प्रतिशत मगर अखबारों में छपे लेख की संख्या भी पच्चीस से कम नहीं थी। कृप्णात्रे जी कहते थे कि नौकरी मांगने के दौरान जब ये लेख किसी को दिखाओगे तो कोई मार्कशीट नहीं देखेगा। और यकीन मानिये सर आज तक मार्कशीट दिखाने की नौबत नहीं आयी। आपके सानिध्य में लिखे गये लेखों ने ही अब तक की नौकरियां दिलवायीं। पत्रकारिता का कोर्स खत्म कर मैं एमए करने लगा तो सर की नजर में फिर खटकने लगा। एक दिन मुझे ओर अखिलेश को उन्होंने राजनांदगांव जाने का फरमान जारी कर दिया जहां पर कुष्ट उन्मूलन का काम चल रहा था। उसके लिये वहीं तकरीबन दो हफते रहकर उस काम को देखना और प्रादेशिक और राष्टीय स्तर पर लिखने की शर्त रखी। कुष्ट की घिन और छुआछूत के नाम पर जब हमने हीला हवाली की तो प्रदीप कृप्णात्रे ने फिर ब्रहास्त्र चल दिया कहा मेरी कसम है तुम दोनों को यदि नहीं गये तो मेरा नाम खराब होगा अपने टीचर का नाम खराब करना चाहते तो मना कर देता हूं। मरता क्या नहीं करता हम दोनों गये और उन पंद्रह दिनों में राजनांदगांव से स्वास्थ्य संचार के विशेषज्ञ बनकर लौटे। राजनांदगांव के कुष्ट पर हमने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखा।
मगर स्थायी नौकरी अब भी नहीं लग रही थी जो प्रदीप कृप्णात्रे के लिये फिर चिंता का कारण था और उधर हमें तो पत्रकारिता की नौकरी करनी ही नहीं थी। यूनिवरसिटी की गलियों से लेकर हास्टल की मस्ती तक अपने दिन अपने मजे से गुजर रहे थे। तभी 1991 के आमचुनाव आ गये। बस फिर क्या था सर का तुर्रा यदि आपको अभी पत्रकारिता में नौकरी नही मिली तो कभी नहीं मिलेगी भूल जाइये पत्रकारिता करना। सर भोपाल किसी काम से आये थे और लौटकर मुझे भेज दिया दैनिक जागरण के अविनाश कुदेसिया जी के पास। छोटे मोटे साक्षात्कार के बाद दैनिक जागरण में उपसंपादक की नौकरी शुरू हुयी और सर ने राहत की सांस लीं। भोपाल में अखबार की नौकरी से चला ये सिलसिला दिल्ली नोएडा के अखबारों से होता हुआ न्यूज टेलीविजन की नौकरी तक इतने सालों से लगातार चल रहा है मगर ऐसा नहीं कि सर की निगाहों से जरा भी दूर हुआ हूं। शुरूआत के दिनों में खतो किताबत से बेहतर बनने और अच्छा काम करने की सलाहें देते रहना और बाद में मोबाइल के दिनों में संपर्क ओर बढा दिया है।
जब पत्रकारिता में पीएचडी करने की बात आयी तो मेंने बिना सोचे समझे सर को ही अपना गाइड चुना क्योकि मेरी पत्रकारिता के पिता और पालनहार तो वहीं है और मुझे खुशी है ये बताते हुये कि मैंने प्रोफेसर प्रदीप कृष्णात्रे के निर्देशन में ही अपनी पीएचडी पूरी कर अपने पिता जी का डाक्टर बनने का सपना पूरा किया है।
करेली से बैंक क्लर्क बनने का सपना लेकर निकले साधारण से छात्र को आज एबीपी न्यूज के भोपाल ब्यूरो के प्रमुख के पद तक लाने में प्रदीप कृष्णात्रे की ही भूमिका रही। तभी तो मैं उनको कहता हूं अगर तुम ना होते।
प्रदीप कृष्णात्रे सर को जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएं। आपके नाम का ऐसा ही उजाला हम छात्रों की जिंदगी को रोशन करता रहे..आभार
ब्रिजेश राजपूत
ए.बी.पी.न्यूज़,
भोपाल

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