हिंदुओं के मुकाबले मुसलमान पुरुषों का कद और वजन बेहतर, साइंस जर्नल नेचर के शोध-पत्र का दावा
55 वर्ष पुराने डाटा की स्टडी से विवि के मानव शास्त्र विभाग के प्रोफेसर व अन्य ने निकाला निष्कर्ष, मंगलवार को साइंस जर्नल "नेचर" में प्रकाशित हुई विस्तृत रिपोर्ट

सागर। भारत में अल्पसंख्यक वर्ग के पुरुषों की लंबाई और वजन, बहुसंख्यक वर्ग पुरुषों के मुकाबले अधिक है है। यह निष्कर्ष डॉ. हरीसिंह गौर विवि के मानव शास्त्र विभाग के प्रोफेसर राजेश गौतम व उनके अन्य तीन देश-विदेश के मानव विज्ञानियों ने निकाला है। एक दिन पहले यह शोध-पत्र, दुनिया के नामचीन साइंस जर्नल “नेचर ” में प्रकाशित हुआ है। शोध-निष्कर्ष के अनुसार संप्रदाय विशेष के मुकाबले, बहुसंख्यक वर्ग को पोषक तत्वों की ज्यादा जरूरत है। जो उन्हें सामान्य भोजन के जरिए नहीं मिल पाते हैं। अल्पसंख्यक वर्ग के पुरुषों का वजन और ऊँचाई इसलिए बेहतर हैं क्योंकि उनके डाइट चार्ट में नॉनवेज भोजन सामान्यत: मौजूद रहता है।
18-84 साल के पुरुषों पर 55 साल पहले हुआ था सर्वे
इस निष्कर्ष को सामने लाने वाले मानव विज्ञानियों में से एक प्रो. गौतम के अनुसार, एंथ्रोपलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने वर्ष 1970 के दशक में बहुसंख्यक- अल्पसंख्यक पुरुषों की ऊंचाई और वजन समेत अन्य बॉडी इंडेक्स लिए थे। इस सर्वे में 1891-1957 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में जन्मे 18 से 84 वर्ष के 43,950 पुरुषों को शामिल किया गया था। प्रो. गौतम के अनुसार मैंने व मेरे साथी मानव शास्त्रियों ने इस डाटा का अध्ययन किया। जिसमें इन दोनों वर्गो के पुरुषों की ऊंचाई व वजन के संबंध में उपरोक्त निष्कर्ष सामने आया। एंथ्रोपलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के इस सर्वे-डाटा में तत्कालीन दोनों वर्गों के शारीरिक के अलावा शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का ब्योरा भी शामिल किया था।
शाकाहारी होने से विटामिन बी-12, आयरन की कमी रहती है
इस शोध के अनुसार बहुसंख्यकों की कद-काठी और वजन में कमी का मुख्य कारण उनके भोजन में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की उपलब्धता नहीं होना है। मानव विज्ञानियों के अनुसार भारत में अधिकांश हिंदु परिवार निम्न आय वर्ग से आते हैं। जिसके चलते उनके भोजन में ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं होते हैं, जिनमें विटामिन बी-12, आयरन, जिंक, सेलेनियम, ओमेगा-3 और फैटी एसिड की पूर्ति हो पाए। जबकि इन तत्वों की आपूर्ति मांसाहारी भोजन से आसानी से हो जाती है। चूंकि इनके परिवारों में मांसाहार सामान्य है। इसलिए उन्हें यह पोषक तत्व नियमित रूप से मिलते रहते हैं। इन पोषक तत्वों की कुछ हद तक पूर्ति ड्राय फ्रूट्स, गुणवत्तायुक्त खाद्यान्न से हो सकती है लेकिन उनके महंगे होने के कारण यह बहुसंख्यकों की क्रय क्षमता से बाहर होते हैं।
एंथ्रोप्लॉजी के शोध नतीजे लंबे समय तक उपयोगी व प्रभावी होते हैं
उपरोक्त शोध व निष्कर्ष करीब 55 वर्ष पुराने डाटा पर आधारित है। वर्तमान परिपेक्ष्य में इसके उपयोगी होने के सवाल पर मानवशास्त्री प्रो. गौतम का कहना है कि मानव शास्त्र उन गिने-चुनी साइंस फील्ड्स में से है। जिनके शोध का बेसिक मेटेरियल जितना ज्यादा दीर्घकालीन यानी अधिक से अधिक वर्षों पर आधारित होता है। उसके नतीजे भी उतने ही अधिक समय के लिए प्रभावी होते हैं। ताजा निष्कर्ष भले ही 55 वर्ष पुराने डाटा पर आधारित है लेकिन इसके नतीजों में अभी कोई अंतर आया होगा, इसकी संभावना नगण्य है। लेकिन हम शोध के नतीजों के अनुसार अपने भोजन, जीवनचर्या आदि में बदलाव करें तो अगले कुछ दशक में यह नतीजे बदलना शुरु हो जाएंगे। प्रो. गौतम के अनुसार इस शोध में दोनों वर्गों के परिवारों में महिला, लड़के-लड़कियों के पालन-पोषण का माहौल, लिंग भेद, शिक्षा, रोजगार के अवसर, रहन-सहन समेत सामान्य शारीरिक अवस्थाएं कुपोषण, मोटापा-दुबलापन, प्रजनन दर, बुढ़ापा और मृत्युदर आदि का तुलनात्मक डाटा भी शामिल है।
साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित इस शोध अध्ययन में इन वैज्ञानिकों का योगदान रहा है-
1.एंथ्रोपलॉजिस्ट प्रो. गे्रजयाना लिज्ब्रिस्किा (मानव जीव विज्ञान और विकास संस्थान, एडम मिकीविक्ज विवि पॉज्नान, पोलेंड) 2. प्रो.राजेश गौतम (मानव विज्ञान विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विवि सागर, मप्र) 3.प्रो. प्रेमानंद भारती (जैविक मानव विज्ञान इकाई, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता) 4. प्रो.रॉर्बट एम. मेलिना (एमेरिट्स काइन्सियोलॉजी और स्वास्थ्य शिक्षा विभाग टेक्सॉस विवि यूएसए और स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्ड एंड इन्फॉमेशन साइंसेज यूनिवर्सिटी ऑफ लुइस विले, यूएसए)



